Tuesday, November 13, 2018

शक्ति केन्द्रों का जागरण ऊर्जा का उर्ध्वगमन

मानवी काया का संगठन छोटी-छोटी कोशिकाओं के माध्यम से होता है। समान संरचना और कार्यपद्धति वाले कोशिका समूह मिलकर ऊतकों का निर्माण करते हैं और ऊतकों से विभिन्न शारीरिक अंग अवयवों का विकास होता है। चेतना के सर्वव्यापी होने के कारण प्रत्येक कोशिका एक जीवन चैतन्य केन्द्र होती है और अपने-अपने स्तर की प्राण ऊर्जा की किरणें बखेरती रहती हैं जिससे शरीर के सामान्य क्रिया-कलाप सम्पन्न होते रहते हैं। मनुष्य शरीर के अन्दर कुछ विशिष्ट शक्ति केन्द्रों का भी निर्माण होता है जहाँ चैतन्य ऊर्जा की बहुलता होती है। शरीर की समस्त कोशिकाओं को जाग्रत एवं विकसित कर सकना हर किसी के लिए संभव नहीं है। अतः प्राण शक्ति की अधिकता वाले विशिष्ट केन्द्रों को ही सक्रिय बनाने-जाग्रत करने का प्रयत्न विभिन्न साधनाओं; यौगिक क्रियाओं के माध्यम से सिद्धि पथ के साधकों द्वारा किया जाता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य परिस्थितियों में चैतन्य ऊर्जा के केन्द्र कषाय-कल्मषों के तमसावरण में छिपे प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। इनमें सन्निहित गुप्त शक्तियाँ प्राण ऊर्जा के अपरिष्कृत होने के कारण अपना सही स्वरूप प्रकट नहीं कर पातीं। उनसे निकलने वाली ऊर्जा रश्मियों से मात्र काय कलेवर की विभिन्न गतिविधियाँ ही सम्पन्न होती रहती हैं और उनके धुँधलके प्रकाश में मनुष्य को पेट-प्रजनन के अतिरिक्त आगे की बात नहीं सूझती। आत्मोत्थान और लोक कल्याण की बात लोगों के समझ में नहीं आती। लोभ, मोह और संकीर्ण स्वार्थपरता के क्षुद्र दायरे में ही सिमटकर अपने जीवन की इति श्री कर लेते हैं।
प्राचीन ऋषियों, योगियों ने शरीरस्थ शक्ति स्रोतों को जाग्रत करने के लिए विज्ञान सम्मत साधना विज्ञान का आविष्कार किया था। जिसके अनुसार विभिन्न यौगिक क्रियाओं के नियमित एवं सतत् अभ्यास एवं गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश करने पर चैतन्य केन्द्रों का जागरण और प्रसुप्त शक्तियों का स्फुरण होता है। तंत्रशास्त और योगशास्त्रों में चैतन्य ऊर्जा केन्द्रों को “कमल” या “चक्र” के नाम से संबोधित किया गया है। शरीर शास्त्रियों एवं चिकित्सा-विशेषज्ञों ने इन केन्द्रों की संगति विशिष्ट ग्रंथों से बिठाई है जिन्हें “अंतःस्रावी ग्रंथियाँ” इण्डोक्राइन ग्लैण्ड कहते हैं। वैज्ञानिकों तथा एक्यूपंचर विशेषज्ञों ने इन्हें विशेष प्रकार के “बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड़” जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र माना है। तो कुछ ने इसे “नर्व फोर्स, वाइटल फोर्स, एक्टीनियम, बायोइलेक्ट्रिसिटी” आदि नामों से सम्बोधित किया है।
भारतीय योग शास्त्रों में मनुष्य शरीर के पृष्ठभाग में कशेरुकाओं के मध्य इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन किया गया है। सुषुम्ना के अन्दर षट् चक्रों की उपस्थिति बताई गई है जिनकी स्थिति ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः सहस्रार, आज्ञा चक्र, विशुद्धि चक्र, अनाहत चक्र, मणिपूर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के अन्दर अनेकों शक्ति श्रोत मर्म स्थान, उपत्यिकाएँ, मातृकाएँ आदि होती हैं जिनमें शक्ति का विपुल भाण्डागार छिपा होता है।
Image result for energy awakeningशरीर शास्त्रियों के अनुसार काया में तंत्रिका तंत्र और ग्रन्थि तंत्र दो प्रमुख प्रणालियाँ होती हैं जिनके माध्यम से समस्त शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों का संचालन और नियंत्रण होता रहता है। तंत्रिका तंत्र का प्रमुख केन्द्र मस्तिष्क है। तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों के अनुसार मानव मस्तिष्क हैं तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों के अनुसार मानव मस्तिष्क दो भागों में विभक्त होता है- दांया भाग और बाँया भाग। दोनों भाग चेतना से सम्बद्ध होते हैं। मस्तिष्क का बाँया भाग भाषा, गणित, तर्क आदि में व्यस्त रहता है। दाँये भाग को ज्ञान, विज्ञान एवं प्रज्ञा का केन्द्र माना जाता है। मस्तिष्क के मध्य में पिट्यूटरी नामक अंतःस्रावी ग्रन्थी होती है जिसे मस्तिष्क का चैतन्य केन्द्र कहते हैं। योगशास्त्रों में इसे ही सहस्रार- सहस्र दल कमल कहा गया है। यह स्थान अतीन्द्रिय क्षमताओं एवं दिव्यज्ञान का केन्द्र है जिसके विकसित होने पर सहस्र दल कमल से असंख्य ऊर्जा किरणें प्रस्फुटित होकर मस्तिष्क के सम्पूर्ण गुप्त केन्द्रों को बाँधती हुई सिर के चारों ओर प्रकाशमान घेरे का निर्माण करती है। इसे प्रभाव मंडल कहते हैं। सहस्रार के विकास के साथ अन्तः और बाह्य वृत्तियाँ शान्त और सुस्थिर हो जाती हैं। मन के कषाय-कल्मष समाप्त होने लगते हैं और अंतः प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है। ऐसे साधक के व्यक्तित्व में ओजस, तेजस और वर्चस की झाँकी सुस्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सहस्रार का विकास कैसल्य प्राप्ति का जीवन मुक्ति का परिचायक माना जाता है।
सहस्रार दल के नीचे ललाट मध्य में दोनों भौंओं के नीचे “आज्ञाचक्र” स्थित होता है। इसे दिव्य दृष्टि अथवा तृतीय नेत्र भी कहते हैं। शरीर शास्त्रियों में आज्ञा चक्र की संगति “पीनियल ग्रन्थि” से बिठाई है जिसे मास्टर ग्लैण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रन्थि से निस्सृत रसायन शरीर के सम्पूर्ण ग्रन्थि तंत्र के परिष्कार से अनेकों शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का निराकरण होता है। मन में उठने वाले विभिन्न आवेग एवं आवेशों का शमन करने वाला यह केन्द्र जाग्रत होने पर साधक को ऊर्ध्वरेता एवं दिव्य दर्शन की क्षमता प्रदान करता है। तृतीय नेत्रोन्मीलन से गुप्त एवं प्रसुप्त अतीन्द्रिय शक्तियों के जागरण का विज्ञान साधक को हस्तगत हो जाता है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति का स्थान अन्तर्मुखी स्वभाव ले लेता है और ऐसा व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकता है।
काया के ग्रीवा वाले भाग में पाई जाने वाली अंतः स्रावी ग्रन्थि को “थाइराइड ग्लैण्ड” कहते हैं। शरीर शास्त्रियों अनुसार संरचना एवं कार्यिकी के दृष्टिकोण से शरीर में इस ग्रन्थि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। चयापचय की क्रिया-प्रक्रिया को कार्यान्वित एवं नियंत्रित करने में थाइराइड ग्रन्थि महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करती है। थाइराइड को सक्रिय बना लेने पर चयापचय सम्बन्धी सभी दोषों का शमन हो जाता है। मन की चंचलता को दूर करने में इस ग्रन्थि का बहुमूल्य योगदान होता है। योग विद्या विशारदों ने कंठ भाग में स्थित इस ग्रन्थि के आसपास स्नायु प्रवाह को विशुद्धि चक्र सम्बोधित किया है और इसे भावना शुद्धि का केन्द्र माना है। मानसिक असंतुलन को दूर करने के लिए विशुद्धि चक्र का शोधन आवश्यक माना गया है। कंठ कूप स्थित विशुद्धि चक्र पर ध्यान करने से भूख-प्यास जैसे सुख-दुःख कारक द्वंद्वों पर विजय पाई जा सकती है। आवेश जन्य गति विधियों पर नियंत्रण एवं नीचे के चैतन्य केन्द्रों के जागरण में आने वाली कठिनाइयों का सहज समाधान भी इस चक्र की साधना से सध जाता है।
अनाहत चक्र को हृदय स्थान स्थित चैतन्य शक्ति का भावना प्रधान केन्द्र माना गया है। शरीर शास्त्रियों ने इसे “थाइमसग्रन्थि” के आसपास स्थित माना है। मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना ज्ञान, बुद्धि एवं तर्क प्रधान होती है। हृदय स्थित चेतना का सम्बन्ध संवेदना प्रधान होने के कारण मनुष्य दुःख-सुख के छोटे-बड़े थपेड़ों से उद्वेलित एवं आनन्दित होता रहता है। अनाहत चक्र के जाग्रत होने पर द्वंद्व की स्थिति समाप्त हो जाती है और व्यक्ति के जीवन में अनिर्वचनीय आनन्द का साम्राज्य छा जाता है। अनाहत चक्र की साधना जीवन मृत्यु के वास्तविक रहस्य को सुलझाती है और उससे छुटकारा पाने का मार्ग उद्घाटित होता है।
हृदय के नीचे स्थान में मणिपूर चक्र स्थित होता है। प्राण ऊर्जा का केन्द्र होने के कारण वैज्ञानिकों ने इसे सोलर प्लेक्सस एवं पाचन संस्थान से जुड़े होने के कारण एपीगैस्ट्रियल प्लेक्सस नाम दिया है और इसका संबंध पैन्क्रियाज नामक ग्रन्थि तंत्र से भी जोड़ा है। शरीर शास्त्रियों ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि नाभि स्थान स्थित चैतन्य केन्द्र का सम्बन्ध स्नायु तंत्र से होता है। इसमें स्नायु तंतुओं का जाल सा बिछा होता है तथा मस्तिष्क की भाँति इसमें भी एक लिबलिवा भूरा पदार्थ- “ग्रे मैटर” भरा होता है इस केन्द्र को “एबडामिनल बे्रन” की संज्ञा दी गई है और बताया गया है कि चेतना शक्ति का वह प्रमुख केन्द्र है जिसकी साधना करने से शरीर में प्राण ऊर्जा का - तेजस् शक्ति का अभिवर्धन और पाचन संस्थान का शुद्धिकरण होता है।
नाभि चक्र के नीचे पेडू के पास स्वाधिष्ठान चक्र स्थित होता है। इसे “जीवनी शक्ति केन्द्र” भी कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे एड्रीनल ग्रन्थि माना है और कहा है कि यह भाग वीर्य रक्षा एवं जीवनी शक्ति के पोषण-रक्षण का मुख्य केन्द्र है। स्वाधिष्ठान चक्र की साधना करने से काम वासना पर नियंत्रण सधता है और साधक ब्रह्मचारी एवं ऊर्ध्वरेता बनता है।
सुषुम्ना के सबसे निचले भाग में मूलाधार चक्र स्थित होता है। इसकी स्थिति गुदा द्वार एवं जननांगों के मध्य बताई गई है। योगशास्त्रों में इसे चेतन शक्ति का प्राण ऊर्जा केन्द्र कहा गया है। इसी आधार केन्द्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कुण्डली मारे प्रसुप्त मुद्रा में दबी पड़ी रहती है और यौगिक साधनाओं के माध्यम से जाग्रत होने पर षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार की यात्रा करती है तथा अनेकानेक अतीन्द्रिय दिव्य क्षमताओं का गुह्य भाण्डागार साधक के सामने खोल देती है। मस्तिष्क को प्राण विद्युत की शक्तिधारा की आपूर्ति इसी केन्द्र के द्वारा होती रहती है। वैज्ञानिकों ने इस केन्द्र का सम्बन्ध प्रजनन ग्रंथों से जोड़ा है। यह शक्ति केन्द्र है जिसमें काम वासना की अधिकता होती है और इसे साधित, नियंत्रित एवं परिष्कृत करके उच्चस्तरीय शक्तियों का स्वामी बना जा सकता हैं मूलाधार चक्र, की साधना करने वाला साधक वीर्यवान एवं ओजस्वी तेजस्वी बनता है। वह अद्वितीय एवं अनुपम मेधा शक्ति का धनी प्रतिभावान व्यक्तित्व वाला होता है।
योगविद्या विशारदों के अनुसार सृष्टि संरचना में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की तरह मनुष्य के शरीर में भी चैतन्य ऊर्जा के दो प्रमुख स्त्रोत हैं। पहला मस्तिष्क मध्य में सहस्रार और दूसरा जननांगों और गुदाद्वार के मध्य स्थान सुषुम्ना के निम्नवर्ती आधार में स्थित मूलाधार चक्र है। दोनों ध्रुवों के मध्य आदान-प्रदान होते रहने-तालमेल बने रहने पर ही मानवी काया के सभी क्रिया कलाप संतुलित एवं सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न होते रहते हैं। यदि इनमें से एक ने एक ने भी अपना अनुदान सहयोग देना बन्द कर दिया अथवा उसमें कटौती कर दी तो दूसरे के समस्त क्रिया कलाप लड़खड़ा जाते हैं और व्यक्तित्व में असन्तुलन पैदा हो जाता है। मनुष्य दीन-हीन, दयनीय स्थिति में पहुँच जाता है।
इस संदर्भ में शरीर विज्ञानियों का कहना है कि प्राण ऊर्जा का प्रवाह निम्न गामी होने पर वह अतृप्त वासनाओं एवं कुँठाओं को जन्म देता है। शरीर के एक छोर पर मस्तिष्क मध्य में द्विदलीय चक्र रूप में पिट्यूटरी ग्रन्थि स्थित होती है तो दूसरे सिरे पर जननाँगों से सम्बन्धित एड्रीनल ग्रन्थि। फिजियोलॉजी की दृष्टि से इन दोनों ग्रन्थियों की उपयोगिता बहुत महत्वपूर्ण होती है। इनका मनुष्य के आचरण, व्यवहार और स्वभाव से सीधा सम्बन्ध होता है। एड्रीनल ग्रन्थि काम वासना के आवेग को उत्तेजित करती है तो पिट्यूटरी ग्रन्थि उस आवेश को शान्त कर देती है अथवा उसकी दिशाधारा को उत्कृष्टता की रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर मोड़ देती है। इसी कारण ग्रंथि तंत्र का शुद्धिकरण जैव ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन का सर्वश्रेष्ठ उपाय माना गया है।
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स्थूल शरीर के अंदर गहराई में छिपे ये मर्मस्थल वस्तुतः विराट शक्ति के भाण्डागार हैं। परमाणु का विखंडन करके जिस प्रकार बड़े परिमाण में ऊर्जा उपलब्ध की जाती है, लेसर व मेसर ऊर्जा के माध्यम से जिस प्रकार अगणित असंभव समझे जाने वाले कार्यों को सम्पन्न कर लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार चेतना के ईंधन शब्द शक्ति का सुनियोजन कर ध्यान धारणा द्वारा सुपात्र साधक सुयोग्य मार्गदर्शन में इन शक्ति केन्द्रों को प्रस्फुटित करते व उपलब्धियों की आध्यात्मिक फलश्रुतियों से लाभान्वित होते हैं। यह एक असाधारण स्तर का योग पुरुषार्थ है। बहुधा इसे हल्की फुलकी, चर्चा के स्तर पर ऐसा मान लिया जाता है, मानों स्विच ऑन करने की तरह यह भी एक याँत्रिक प्रक्रिया है। यह क्रम जहाँ तक संभव हो दूर किया जाना चाहिए। साथ ही एक और तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि योगग्रन्थों में वर्णित षट्चक्रों की जो संगतियाँ शरीरगत ग्रंथियों और गुच्छकों से बिठाई जाती हैं, वस्तुतः वह शरीर विज्ञानियों के अन्दर स्थूल रूप में आत्मा नाम की संरचना खोजते रहे हैं और समस्त संभावनाओं को काय कलेवर की परिधि में ही लपेटते रहे हैं। अन्यथा ये सभी शक्ति केन्द्र अति सूक्ष्म होते हैं तथा योगाभ्यास, विचारणा-भावना की पवित्रता एवं गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता के आधार पर विकसित हुई अन्तःप्रज्ञा द्वारा अनुभूत होते हैं।
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Tuesday, October 30, 2018

सावधान हो जाओ कि, नवयुग आता है

पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने दिव्य  संदेशों के साथ एक विशेष संदेश भी दिया ,वह है नवयुग आगमन हेतु तैयारी । गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल  भविष्य की भविष्यवाणी की और इसी हेतु से उन्होंने समाज सुधार के द्वारा लोगों को पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा दी । इसी बीसवीं सदी में अनेकों महापुरुष अवतरित हो गए जिसमें कुछ ने जाति-पाति भेदभाव के बंधन से पृथक होकर मानव मात्र की ही नहीं अपितु इस पूरी धरा की सेवा की जिनमें से पूज्य गुरुदेव एक थे । दूसरी तरफ अनेक मतावलंबी भी उत्पन्न हुए, जिन्होने स्वयं को लोगों से पृथक कर पंथ बना लिए जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं को ज्यादा से ज्यादा शक्ति सम्पन्न व सुरक्षित करनेहेतु सुविधा- संग्रहण करते चले गए । इस सुविधा संग्रहण के अधिक प्रयास के कारण यह धरती इन धर्माओंलंबियों प्रायास में खोखली होती चली गयी ।


गुरुदेव के अनुसार सतयुग की वापसी 21वीं सदी में हो जाएगी । परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है सतयुग की वापसी के लिए क्या प्रक्रियाएँ  और घटनाएं होंगी जिससे कलयुग का अंत हो जाएगा ।

विज्ञान की दृष्टि से ही देखें तो लोगों को ज्यादा विश्वास दिला सकने में आसानी होगी ।  विज्ञान की दृष्टि के अनुसार विश्वव्यापी आपदाओं को नहीं भुलाया जा सकता, ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते घनत्व के कारण कोई भी खाद्य पदार्थ शुद्ध नहीं रह गया, भौतिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले विकिरणों  के कारण मानव समाज में फैलता हुआ रोग अनदेखा नहीं किया जा सकता । तेजी से ग्लेशियर के स्तर का घटना, समुद्र के स्तर का बढ़ना और अनेकों आपदाओं का आना इस बात का उदाहरण है की कलयुग की समाप्ति की शुरुआत प्रारंभ हो चुकी है ।


यह परिस्थिति धीरे धीरे बढ़ती जाएगी क्योंकि इसकी रोकथाम को कर पाने के लिए पृथ्वी के सभी मानव द्वारा अनेकों प्रयास के बावजूद हमने प्रदूषण , विकिरण, पेड़ों के कटाव और बीमारियों की रोकथाम को पूर्णहन रोक सकने में नाकामयाब रहे ।


क्या असर होगा इन सबका -
                 इन सबका परिणाम बहुत जल्दी ही बहुत भयावह रूप लेने वाला है जो तमाम बुद्धिजीवियों को भी नहीं दिखाई पड़ रहा है । खास करके हम बात उनकी करेंगे जो ऐशों-आराम की जिंदगी में मस्त हैं । उनके लिए अच्छा संदेश नहीं दिख रहा । कहीं पर कोई महामारी, बीमारी अथवा प्राकृतिक आपदा तबाही का रूप लेगी , जिसमें  बच सपने में वही सक्षम होंगे जिन्होंने ऐशों-आराम की जिंदगी से दूर रह पुरुषार्थ किए । जिन्होने सुविधा-संग्रह-भोग के जीवन को गुजारा है उनके अंदर शारीरिक और मानसिक क्षमता अपूर्णहोने के कारण ऐसे लोगों का स्वयं को और स्वयं की पीढ़ी को सतयुग के द्वार तक पहुंचा सकने में असफलता होगी ।



कैसे तैयार करें सतयुग के लिए स्वयं को -
                                   सतयुग के द्वार तक पहुंचने का अर्थ है पृथ्वी के नवजीवन में प्रवेश । जहाँ आपकी पीढ़ी भी गतिशील रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही ।  किंतु सतयुग के द्वार तक पहुंचना सभी के लिए साधारण नहीं । इसके द्वार तक पहुंचने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अपूर्व  क्षमता चाहिए ,इसके साथ भावनात्मक बल चाहिए । हालांकि, यह कार्य प्रकृति का है इसलिए पूरी तरह से न्याय पूर्वक होगा । जो लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ शारीरिक रूप से सक्षम नहीं हो पाएंगे वे  वहाँ तक नही पहुंच पाएंगे । विकृत लोग , भेदवादी, कुरीतिवादी, महत्वाकांक्षी , भोगी, लोभी लोग स्वयं प्रकृति द्वारा छट कर समाप्त हो जाएँगे । भावनात्मक रूप से समृद्ध दयावान, सेवाभावी निर्गुण, और पुरुषार्थी लोग रह जाएंगे ।

कैसे होगा  सतयुग -  तमाम प्राकृतिक आपदाओं के बाद धीरे-धीरे धरा शांत होगी ।  आज के युग की भौतिक संपदाएँ पूरी तरह से समाप्त हो चुकी होंगी । मानव मात्र मे कल्याण के  हेतु से सभी का प्राकृतिक जीवन के प्रति संकल्प होगा । एक नए युग का प्रारंभ हो जाएगा , जिसमें मनुष्य का जीवन पूर्ण  प्राकृतिक होगा, कोई मशीनीकरण नहीं होगा, कोई बाजारीकरण नहीं होगा, रात में चांद और तारों की ही रोशनी प्रकाशित होगी । कोई पंथ  नहीं होगा कोई जाति नहीं होगी। कोई अनीति नहीं होगी, कोई कुरीति नहीं होगी । कोई बंदर नहीं होगा-कोई मदारी नहीं होगा, कोई राजा नहीं होगा ,कोई भिखारी नहीं होगा , । क्योंकि सतयुग में प्रकृति ने ऐसे लोगों का चुनाव किया ही नहीं जिसमें उसको पुनः स्वयं की त्रासदी आ सामना करना पड़े ।

हमें क्या करना होगा - ऐसा नहीं है कि हमारे अंदर कोई कमी है तो हम सतयुग में पहुंचने के योग्य नहीं ।  कमियां सबके भीतर होती हैं हमें स्वयं की कमियों को स्वयं से पृथक करके अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को अभी से समृद्ध करना होगा ।
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पूज्य गुरुदेव की तरफ से दिव्य संदेश यही है कि स्वयं में जागें, ,शुद्धीक्रिया से निवृत्त हों और सतयुग में प्रवेश हेतु पुरुषार्थ में निहित हो जाएँ ।
_____________लेख - मानसराज ऋषि

Tuesday, October 16, 2018

सिर्फ चक्र जागरण ही पर्याप्त नहीं गति भी महत्वपूर्ण


नमस्कार मित्रों .
जैसा कि सभी जानते हैं आज का परिवेश आधुनिक युग कहलाता है और यह युग  पिछले 500 वर्ष पहले के युग से बिल्कुल भिन्न हो चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग मनुष्य के जीवन का पूर्ण पर्याय बन  चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग की आवश्यकता आजकल गृहस्थों को ही नहीं बल्कि सन्यासियों और साधुओं को भी हो गई है । इस सुविधा, संग्रह ,भोग में लिप्त इंसान जब शारीरिक रूप से स्वयं को सक्षम नहीं महसूस करता तब वह स्वयं को सुविधा,संग्रह भोग के लिए सक्षम करने हेतु योगआसान और प्राणायाम  करता है । योगासनों और प्राणायाम का अभ्यास करते-करते उसे ज्ञान होता है कि इससे भी ऊपर की बात है - सात चक्रों का जाग्रत होना है । सुविधा, संग्रह, भोग को एक तरफ इंसान छोड़ना नहीं चाहता दूसरी तरफ सात चक्रों को जागृत करना चाहता है । इतिहास के पन्नों में मानव जाति के पतन के लिए कार्य करने वाले मोहम्मद गोरी, गजनी, हिटलर, लादेन जैसे अनेकों शक्ति संपन्न इंसानों का जिक्र आता है । वहीं दूसरी तरफ मानव जाति के उत्थान के लिए कार्य करने वाले कृष्ण ,सम्राट अशोक, संत कबीर, बुद्ध ,स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का जिक्र भी आता है । हम यह बिल्कुल नहीं कह सकते कि पतन के रास्ते पर कार्य करने वाले यह महामानवों के चक्र जागृत नहीं थे । इन सभी की सक्रियता और सक्षमता के अनुसार इनके सातों चक्र जागृत कहे जा सकते हैं किंतु चक्र जागरण ही मुख्य बात नहीं है । मुख्य बात है चक्रों की सकारात्मक गति और नकारात्मक गति । पतन के रास्तों पर कार्य करने वाले सभी महामानवों के चक्रों की गति नकारात्मक रूप से अधिक गति में गतिशील थी और उत्थान के मार्ग पर कार्य करने वाले महापुरुषों के चक्रों की गति ,तीव्र गति में सकारात्मक । इसीलिए उनके भीतर की प्रेरणा और कार्य भी सकारात्मकता और नकारात्मकता की दृष्टि से परिवर्तित हो गए । हमारा इस परिदृश्य में बात रखने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि हम यदि चक्रों के जागरण पर कार्य कर रहे हैं तो आवश्यक हैं कि उसके साथ सात चक्रों की गति को सकारात्मक मूवमेंट देने के लिए भी कार्य करें । अन्यथा स्वयं के सुविधा,संग्रह,भोग , गलत आदतों और बुराइयों के कारण चक्र जागृत होने के बावजूद भी नकारात्मक गति में गतिशील रहेगा जिसके कारण हम चक्र जागृत करने के बाद भी समाज के लिए कोई योगदान नहीं दे पाएंगे और स्वयं की स्वार्थनिहिता के कारण चक्रों को जागृत करने के बावजूद भी पूरा जीवन निरर्थक कार्यों बिता देंगे ।

उदाहरण के स्वरूप में हमने मूलाधार चक्र को लिया जिसकी मुख्य चार उर्जाएँ - धर्म, अर्थ, काम और  मोक्ष के संतुलन के लिए कार्य करती हैं । किसी व्यक्ति का मूलाधार चक्र जागृत है और जागृत होने के साथ अधिक सकारात्मक भी है तब वह धर्म,अर्थ ,काम ,मोक्ष के विषय अंतर्गत सकारात्मक रीति से कार्य करेगा अन्यथा जागृत मूलाधार चक्र की ऊर्जाओं को वह धर्म,अर्थ, काम में लिप्त होकर व्यर्थ गँवाएगा ।

चक्रों के जागरण के साथ उसकी स्कारात्मक गति किसी अभ्यास से नहीं प्राप्त होती । यह  भीतर के संयम संकल्प द्वारा आत्माशक्ति वृद्धि से ही प्राप्त हो सकती है इसलिए चक्रों के जागरण में के साथ पंचकोशीय  यात्रा की साधना भी अनिवार्य रूप से करना चाहिए । अन्यथा सात चक्र जागृत होने के बावजूद भी व्यक्ति के चेतना अन्नमय कोश तक ही अटकी रहेगी ।  जिससे ना तो स्वयं का उत्थान संभव है और ना ही समाज कल्याण । आजकल योग साधक जब समाज कल्याण करता है तब उसके समाज कल्याण में उसके भीतर दिखाई देने वाली  महत्वाकांक्षा उसके चक्रों के जाग्रत होने के साथ नकारात्मक गति का महत्वपूर्ण उदाहरण है । ऐसे में योग साधना बाजार की वस्तु और दिखावे की वस्तु बन कर रह जाती है ।
उचित है कि हम सात चक्रों को जागृत करें किंतु आवश्यक है उसके साथ चक्रों की गति को सकारात्मक भी करें जिसके लिए सही मार्गदर्शन की खोज करें , इस बात को ध्यान रखते हुए की चक्र जागरण कोई बाजार में बिकने वाली बाजार वस्तु नहीं है । _______________________लेख - मानस राजऋषि

Thursday, September 13, 2018

वर्तमान योग का विस्तार - कोई अकारण घटना नहीं

र्तमान समय में योग के प्रति लोगों की आस्था जिस प्रकार से बढ़ी है  वह वास्तव में आश्चर्यजनक है । पिछले 50 वर्ष पूर्व बहुत कम लोग योग को जानते थे एवं अभ्यास करते थे ।  वर्तमान में दुनिया का हर  व्यक्ति ग्लोबल नेटवर्क से जुड़ चुका है और योग को जानता है  । प्रकृति में कोई घटना अकारण नहीं घटती है । आपने देखा होगा कि बारिश के समय चीटियों की पीठ पर पंख निकल आते हैं यह घटना प्रकृति की एक विचित्र देन है जो चीटियों को बारिश में सुरक्षित करने के काम आती है  । ठीक इसी तरह प्रकृति हर एक जीव जंतु के लिए ऐसी विशेष परिस्थितियों ,जिस समय किसी विशेष जाति समुदाय का पूरा कुल समाप्त होने की स्थिति में आ जाता है तो प्रकृति कहीं ना कहीं से कोई ऐसा विकल्प तैयार रखती है जिससे अल्पसंख्या में जाति विशेष का अंश सुरक्षित रह कर पीढ़ियों को आगे बढ़ा सकता है । विचार करने वाली बात यह है कि इंसानों के अंदर शक्ति रुप में ऐसा कौन सा विकल्प है जो ऐसी विशेष परिस्थिति के बाद अंश मात्र को सुरक्षित रख सके ।
सामान्य लोगों की समझ में  यह बात शायद ना आए किंतु योगी प्रकृति के लोग जो स्वयं को सिद्ध कर प्रज्ञाचक्षु बन गए हैं उनको भविष्य में आती हुई महाप्रलय की लीला अवश्य दिखाई देती होगी । भोगी प्रकृति के लोगों को कोई चिंता नहीं है । वे तो वर्तमान में ही आनन्द से जीने को परम कर्तव्य मान रहे हैं और वर्तमान के भोग में तल्लीन हो आनंद ले रहे हैं । धीरे-धीरे नज़दीक आती प्रलय की लीला भोगी प्रकृति के लोगों को भला कहां से दिखाई पड़ेगी । मैं नहीं अनेकों भविष्यवक्ता और सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने  नजदीक आती महाप्रलय लीला को स्वीकार किया है । बस सब की भविष्यवाणियों के  बताए गए समय में शायद थोड़ा बहुत अंतर हो किंतु यह अवश्य तय है । यदि अभी की परिस्थिति में हमें यह शुरुआत नहीं दिखाई दे रही हो तब हमसे ज्यादा चिंतनीय और कोई अन्य नहीं है । आज के परिवेश में यदि आप ग्लेशियर के पिघलने की स्थिति को देखेंगे तो पिछले 100 सालों में ग्लेशियर इतना ज्यादा विकृत हो चुका है जितना कि पिछले 10000000 वर्षों में नहीं हुआ । ठीक इसी तरह से  पिछले  100 सालों में अनेक नदियां सिर्फ नाम बनकर के रह गई उनका पानी नदारद हो चुका है ,बची हुई नदियों का जल पूरी तरह से दूषित हो चुका है और वायु में जहरीली गैसों का अनुपात बहुत ज्यादा बढ़ चुका है । पूरी धरती पर जितने भी वृक्ष हैं  उनके ऑक्सीजन उगलने का अनुपात वातावरण में फैले जहर के अनुपात से कम हो चुका है । पिछले 100 सालों में अलग-अलग जगह पर विनाश की लीलाओं ने बहुत सारे संकेत दिए किंतु यह भी सत्य है ना तो अब मनुष्यों को पिछले 500 साल मे वापस भेजा जा सकता है और ना ही करीब आती प्रलय की इस लीला को रोका जा सकता है । अब तो सिर्फ प्रलय की उस लीला से स्वयं को सुरक्षित निकाल सकने के लिए तैयारी की जा सकती है और उस तैयारी के लिए  "लैमार्क" के सिद्धांत के अनुसार जो योग्य होगा वह अवश्य बचेगा ।  प्रकृति के इस चुनाव में  योग्य बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण द्वार है - "योग" ।
योग करने का तात्पर्य शारीरिक रूप से मजबूत ही बनने का नहीं है बल्कि मानसिक और आत्मीय रूप से मजबूत होते हुए अपनी जीवनी  शक्ति को बढ़ाने का मुख्य हेतु भी है । प्रकृति ने बीते तमाम वर्षों में अपनी सामान्य त्रासदियों द्वारा यह संकेत किया है इंसान हवा, जमीन और जल किसी भी प्रकार की त्रासदी को झेलने के लिए तैयार हो जाए और इस की तैयारी हेतु सबसे बड़ा विकल्प है "योग" । पिछले तमाम वर्षों में योग का पुनः पनपना , घर-घर तक पहुंचना यह किसी महापुरुष की देन नहीं । योगी और महापुरुष तो एक माध्यम हैं । यह प्रकृति के द्वारा चयनित  व्यवस्था का स्वरूप है । क्योंकि यही एक विकल्प है जिसके द्वारा इंसान भीतर और बाहर से मजबूत बन सके और महा त्रासदी का सामना कर सके । भविष्यवक्ताओं के अनुसार महात्रासदी के बाद इंसानों का जीवन पृथ्वी पर 90℅ से 95% तक समाप्त हो जाएगा । यह 5% से 10% बचने वाले वही इंसान होंगे जो इस महाप्रलय से बच सकने के लिए योग्य होंगे और उन्हीं इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर पुनः नवजीवन का अवतरण होगा । ऐसे ही इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर सतयुग की पुनः वापसी होगी । क्या कभी हमने सोचा है हमारी आने वाली पीढ़ियां भी आने वाले सतयुग के इस सवेरे को अपनी आंखों से देखें । यदि नहीं सोचा है तो वास्तव में सत्य ही है कि आप न स्वयं के प्रति चिंतित हैं और ना ही आने वाली पीढ़ियों के प्रति ।  हमारा तात्पर्य सिर्फ यह नहीं है कि जो व्यक्ति रोजाना योग, प्राणायाम कर रहे हैं वे प्रलय में बच सकने के लिए  सक्षम हैं बल्कि हमारा तात्पर्य योग को पूर्णता से अपने जीवन में उतारने के लिए है। क्योंकि यही एक विकल्प है जो हमारे भीतर की कमजोर चेतना को ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए मजबूत बना सकता है ।  हम में से यकीनन तमाम लोग योग कर रहे हैं किंतु सत्यता यह भी है कि आसन और प्राणायाम के अतिरिक्त बाकि पूरा जीवन भोग ,काम ,लोभ और अहंकार में गुजर जा रहा है , जिसे हम बदलना नहीं चाह रहे हैं और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी  भोग,लोभ, काम और अहंकार के संस्कार की चादर ओढा रहे हैं और हमें मालूम भी नहीं की प्रकृति अपने चुनाव में ऐसे लोगों को विनाश की लीला में नष्ट होने के लिए चयनित करेगी । यदि हमारे भीतर वास्तव में योग अभ्यास और उससे प्राप्त शक्ति होगी तो निश्चित ही हमारे भीतर भविष्य में आने वाली इस परिस्थिति को समझ सकने की क्षमता होगी । हम तो सिर्फ यही कहेंगे कि वक्त बहुत कम हैं और हमारे दोनो हाथों में एक में भोग की छड़ी है, तो दूसरे में  लोभ की छड़ी और आंखों पर अहंकार का चश्मा है । हमको सिर्फ इन दोनों छड़ियों को और चश्मे को फेंक कर तैयार होना पड़ेगा ,क्योंकि मालूम नहीं महाविनाश की इस लीला में हमको सतयुग के द्वार तक प्रवेश करने के लिए कितने दिन भूखे भटकना पड़ेगा और कितने दिन अव्यवस्थित भटक कर गुजारना पड़ेगा ।  हम तो सिर्फ परम पूज्य गुरुदेव को याद करते हुए उनके इस शब्द को दोहरा रहे हैं -

सावधान हो जाओ 
सावधान हो जाओ नवयुग आता है। 
स्वागत थाल सजाओ नवयुग आता है।। 
होवे कितना ही भारी, पाप अँधेरा। 
भागेगा वह होते ही, पुण्य सबेरा॥ 
होना है दूर, अँधेरा मेरे भाई रे। 
आना है शीघ्र, सबेरा मेरे भाई रे॥ 
सुनो जरा युग दूत, प्रभाती गाता है॥ 
दुष्टता भ्रष्ट स्वार्थ ये, रह न सकेंगे। 
चोट यह महाकाल की, सह न सकेगे। 
होगा न इनका, गुज़ारा मेरे भाई रे। 
देखो तो दैवी, इशारा मेरेे भाई रे॥ 
जो भी हो विपरीत, सभी गल जाता है 
शौर्य सद्भाव बढ़ेगा, सबके मनों में। 
विश्व-बन्धुत्व पलेगा, जन-जीवन में॥ 
आयेगा स्वर्ग, जमीं पर मेरे भाई रे। 
बनना है देव, हमीं को मेरे भाई रे॥ 
दैवी साँचे में ये, सब ढल जाता है॥ 
पाण्डवों जैसा प्रभु से, नेह लगा लो। 
गिद्ध-ग्वालों जैसा ही, शौर्य जगा लो॥ 
जागेगा भाग्य, हमारा मेरे भाई रे। 
आँखों में कल का, नज़ारा मेरे भाई रे॥ 
साहस करने वाला, धन्य कहाता है॥ 

मुक्तक
नया युग आ रहा है, पात्रता विकसित करें अपनी। 
उसी अनुरूप जीवन विधि, चलो निर्मित करें अपनी॥ 
स्नेह, सद्भाव, समता और ममता को सँजोकर हम। 
नये युग को कि स्वागत अञ्जलि अर्पित करें अपनी॥ 

----------------------------------------------------------------------- Article  by - Manas Rajrishi

पढ़ने से पूर्व "मिच्छामी-दुक्कड़म" 🙏🏼💚

हापर्युषण का पावन पर्व । प्रार्थना होगी , आराधना होगी, अपराधबोध होगा और अपराध के प्रति पश्चाताप होगा । फिर एक दिन आएगा जब सब अपने मोबाइल पर एक अच्छा सा मैसेज बनाकर अथवा कोई फोटो जिसमें सुंदर अक्षरों में लिखा होगा "मिच्छामी-दुक्कड़म" की पोस्ट चारो तरफ सेंड करना शुरू हो जाएगा । कोई भी इंसान, कोई भी ग्रुप , कोई भी सोशल मीडिया नहीं छूूटना चाहिए । "मिच्छामी दुक्कड़म" की पोस्ट मूसलाधार बरसात की तरह आती है । फिर उन्हीं चेहरों को साल भर देखता हूं , कोई जनता का खून चूस रहा ,कोई किसी के साथ अन्याय कर रहा , कोई किसी को गलत फंसा रहा, कोई किसी के साथ अत्याचार कर रहा ।

 यह पावन पर्व साधना,आराधना अपराधबोध ,पश्चाताप  फिर समापन  और चारों तरफ "मिच्छामी दुक्कड़म"- "मिच्छामी दुक्कड़म" की बौछार प्रारंभ । हमें नहीं लगता गृहस्थ जीवन में इस तरह की पर्युषण पर्व की पूरी साधना करने वाले सभी लोग वास्तव में मन और भाव से साधना करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे  सिर्फ अपने रीति रिवाजों को पूरा कर पर्युषण के दिन को खत्म कर मिच्छामी दुक्कड़म - मिच्छामी दुक्कड़म करने लगते हैं ।. क्षमा याचना के मामले में बौद्ध धारण के अपराधबोध और क्षमा याचना के ढंग से मैं प्रभावित हूं । यदि जाने और अनजाने में किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति के साथ अन्याय किया है तो वह स्पष्ट रुप से पीड़ित को यह कह कर क्षमा याचना करता है ,मैंने आपके साथ इस प्रकार का अन्याय किया है और आप को इस रुप में पीड़ा पहुंचाई इसलिए उसके प्रति मैं आपसे क्षमा याचना करता हूं । किंतु "मिच्छामी दुक्कड़म" शब्दों के साथ में कुछ अपूर्णतायें हैं ।
वे अपूर्णता है यदि पूरी हो जाए तो "मिच्छामी दुक्कड़म" सही अर्थों में बहुत शक्तिशाली रूप में समाज को अपराध ना करने के लिए प्रेरित करेगा । इस पर्व में अपराधबोध का भली प्रकार से चिंतन कर लेना चाहिए। स्वयं के द्वारा किसके प्रति अपराध हुआ । "मिच्छामी दुक्कड़म" के शब्दों को व्यक्त करने के लिए सबसे पहले उन व्यक्तियों को खोजना चाहिए जिनके प्रति आपने जानबूझकर अपराध किया । जिसके प्रति अपराध हुआ । अपराध की स्पष्टता करते हुए क्षमा याचना करनी चाहिए ।.  "मिच्छामि दुक्कड़म" को तभी पूर्ण कह सकते हैं जब तक अपराध करने वाले की आंखों में वास्तविक  पीड़ा  दिखाई दे और स्वयं के अपराध के प्रति क्षमा याचना के साथ पीड़ित व्यक्ति संतुष्ट  हो जाए । तब तक "मिच्छामि दुक्कड़म"  ठीक उसी प्रकार अधूरा है जैसे धर्मों के अन्य रीति रिवाजों का पालन हम भली-भांति तो करते हैं किंतु भाव विहीन हो कर । "मिच्छामि दुक्कड़म" का यह प्रयोजन   आज के समय मेें दिखावे की वस्तु भर बनकर रह गया है । न तो अन्य धार्मिक रीति-रिवाज समाज की दिखावे की वस्तु है और ना ही "मिच्छामी- दुक्कड़म" कोई दिखावे की वस्तु है । इन सभी का तात्पर्य और उद्देश्य सिर्फ एक ही है स्वयं के अंदर पवित्रता का उदय हो जाए , मृत्यु के बाद की गति अतिउत्तम हो जाए अन्यथा रीति-रिवाज और "मिच्छामि दुक्कड़म" में समय व्यर्थ होकर उसी तरह से निकल जाएगा जैसे कई जन्मों की यात्राओं में समय निकल जा रहा । भले ही शास्त्रों में विशेष बातें लिखी हूं किंतु सत्य यही है आपका जन्म किसी भी धर्म में हुआ है जब तक आप अंतःकरण को पवित्र नहीं करेंगे तब तक अनंत जन्मों की यात्रा समाप्त होने वाली नहीं - "मिच्छामी दुक्कड़म"
--------------------------------------------------------------------------------Artical by - Manas Rajrishi  

Thursday, September 6, 2018

समृद्ध होने की सही दिशा

यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तब हम आपको धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंडों, बहुत अधिक पूजा पाठ, कर्म क्रिया कांड, तंत्र मंत्र अथवा धार्मिक आश्रमों में जाकर साधनाओं में समय गवाने की बात बिल्कुल नहीं करेंगे, क्योकि इनसे आप बिलकुल समृद्ध नहीं होने वाले।   हम सिर्फ गीता में लिखी वह महत्वपूर्ण बात कहेंगे जिसके ऊपर श्रीकृष्ण ने बार-बार इंगित किया और वह बात है सही तरीके से स्वयं के कर्म में संलग्न हो जाना।  जब तक हम सही तरीके से कर्म में संलग्न नहीं होते हैं तब तक अधिक पैसे का लोभ  और काल्पनिक सफलता की लालसा के कारण कई जगह हाथ पाव आजमाते रहते हैं और हर बार निष्कर्ष विचार स्वरुप में यही आता है कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं है।  हमें कुछ अन्य के लिए प्रयत्न करना चाहिए और यह प्रयास बार-बार करते हुए एक दिन वह उम्र निकल जाती है कि आप पिछली उसी शक्ति के साथ बार-बार प्रयास कर सकें ! तब तो सिर्फ पेट भरने के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति के कारण प्रयास होता है यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तो आप का कर्म  है -पुरुषार्थ साधना करिए और  समृद्ध  बनिए।

           

हम समृद्ध होने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं किंतु यह सारा प्रयत्न हमारे स्वयं से बाहर की तरफ होता है और जितने लोग यह सारा प्रयत्न बाहर की तरफ कर रहे हैं, हमारे सर्वेक्षण के अनुसार कोई भी समृद्धि नहीं मिले.  समृद्धि का अर्थ स्वास्थ्य के प्रति संबंधों के प्रति, संपत्ति के प्रति, परिवार के प्रति, व्यवसाय के प्रति संतुष्टि की भावना और हमेशा सकारात्मक विचार, प्रेम,  दया भाव और सदैव  आनंदित,रचनात्मक प्रवृत्ति। समृद्ध व्यक्तियों के चेहरे पर सदैव यह समृद्धि साफ-साफ झलकती है। 

असमंजस का विषय है योग साधक बंधु यह समझते हैं कि महर्षि पतंजलि ने चित्त को एक जगह पर स्थिर करने का हेतु  सिर्फ योगी बनने के लिए अथवा समाधि या मोक्ष  प्राप्त करने के लिए कहा है किंतु ध्यान रखिए आप गृहस्थ जीवन में हैं  इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात आपके समृद्ध होने के लिए है।   जब तक आप समृद्ध नहीं होंगे तब तक पूर्णत: संतुष्ट नहीं होंगे और जब तक संतुष्ट नहीं होंगे तब तक समाधि या मोक्ष पाना असंभव है।  इस समृद्धि को प्राप्त करने के लिए कि आपको सबसे पहले स्वयं को स्थिर करने का प्रयास करना होगा।  स्थिरता से  मूलाधार चक्र सही गति में चलने लगता है और उससे प्रदीप्त होने वाली ऊर्जा ऊपर  चढ़ने लगती है।   मूलाधार चक्र से प्रदीप्त ऊर्जा  स्वाधिष्ठान को प्रभावित  और संतुलित  करती है।  स्वाधिष्ठान के संतुलित  होने से आपके पास आप को समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ाने हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध होने शुरू हो जाते हैं।  मूलाधार की ऊर्जा  सुसुम्ना के रास्ते  मणिपुर चक्र तक पहुंच कर मणिपुर को संतुलित करने लगती है  तब हमारे भीतर उपलब्ध संसाधनों के सही विवेक का ज्ञान होने लगता है , स्वभाव में सौम्यता  आ जाती है।  
जब यह ऊर्जा सुसुम्ना के रास्ते अनाहत में पहुंचती है तब  स्वयं के कर्म के प्रति अपार लगाव हो जाता है।  जिसके कारण व्यक्ति स्वयं के कर्म को तत्परता से करने लगते हैं। और जब यही ऊर्जा विशुद्धि तक पहुंच कर विशुद्धि को संतुलित करती है तब हमारे कर्म का विस्तार होना प्रारंभ हो जाता और हमारे कर्म का विस्तार हमारी समृद्धि की दिशा में पहला कदम होता है। उपलब्धियों के साथ यदि हमारे कर्म और संगठन पर हमारा नेतृत्व और पूर्ण नियंत्रण स्थापित ना  हो तब भी हम इसको समृद्धि नहीं  कह सकते हैं।  आज्ञा चक्र तक उर्जा का पहुंचना और संतुलित होना ,हमें नियंत्रण करने की पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करता है और राजयोग की तरफ भी स्वयं की दिशा को प्रशस्त करता है। 
किंतु इन सब प्रयत्नो के द्वारा समृद्धि प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले चिंतन, मनन और ध्यान में जाना होगा और पाखंडों का त्याग करना होगा।  जिससे एक ही रास्ते पर चलना आसान हो सके।   

Tuesday, September 4, 2018

मूलाधार चक्र परीक्षण, प्रभाव

मूलाधार चक्र -

मजबूत आधार के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं . जीवन में 90% से अधिक समस्याएं जीवन के संघर्ष और भटकाव के कारण होती है . यह कार्य मुख्य रूप से मूलाधार चक्र के असंतुलन के कारण होता है . जैसा कि अनेक ग्रंथों में वर्णन है -चार पंखुड़ियों वाला लाल कमलवत  स्वरूप ,रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में स्थित होता है . इसकी ऊर्जा का  मुख्य स्थान गुदाद्वार और जननेंद्रिय के बीच होता है .जीवन के मुख्य गुणों में यह जीवन की स्थिरता का नियंत्रण करता है . टेस्टिकल और एड्रिनल ग्रंथियों का क्षेत्र ज्ञानेंद्रिय नासिका . चक्र की कर्मेंद्रिय गुदा, मुत्रपिंड, मेरुदंड एवम विसर्जन पर नियंत्रण करने का कार्य . इसके संतुलन से शरीर में मस्सा ,कैंसर, घुटनों की समस्या और फोबिया जैसे समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है योग ध्यान द्वारा मनपूर्वक साधना से जागृत और संतुलित किया जा सकता .


चक्र का परीक्षण, प्रभाव - 
और इन अवस्थाओं के अतिरिक्त हर चक्रों की दीप्त आदि 9 अवस्थाएं होती हैं व्यक्ति के गुणों के आधार पर और व्यक्ति के जीवन में चल रही स्थितियों के आधार पर हम चक्रों की अवस्थाओं को समझते हैं . किंतु इसके अतिरिक्त भी वैदिक विधि द्वारा  जन्म समय के चक्रों की अवस्था को अवश्य जान लेना चाहिए इससे उसके जीवन के संस्कार में चक्रों की क्या स्थिति है इसका ज्ञात हो जाने से चक्रों का संतुलन करना आसान हो जाता है ।

हम स्वयं के प्रति अथवा  किसी अन्य व्यक्ति के प्रति , नीचे लिखे गुणों के अनुसार से जान सकते हैं कि मूलाधार चक्र कितना जागृत और दीप्त अवस्था में  है । प्रारंभ में सबसे जाग्रत स्वरूप को रखते हुए नीचे अगले अन्य क्रमों में चक्रों का बल घटते क्रम में निम्नलिखित है -
  1. यदि व्यक्ति अपने जीवन में पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और उसका  चारों तरफ यश प्रदीप्त हो रहा है तो या "जागृत दीप्त" अवस्था  कहलाती है ।
  2. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और पूरी तरह से स्वस्थ हो . गम्भीर हो और सामजिक कर्यो में प्रवृत्त  यह" जागृत स्वस्थ"  अवस्था कहलाती है. 
  3. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्यों को कर रहा हो और स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण संतुष्ट हो तो यह "जागृत मुदित" अवस्था कहलाती है । 
  4. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण स्थिर हो और संतुष्टि और असंतुष्टि के प्रश्न पर वह शांत हो तो या "जागृत शांत" अवस्था कहलाती है । 
  5. यदि व्यक्ति स्थिरता के साथ कार्य करने की सामर्थ्य रखता हो किंतु अभी विशेष कार्य का अवसर हाथ न लग पाने के कारण प्रतीक्षारत हो तो यह "जागृत शक्त" अवस्था कहलाती है । 
  6. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्य पूर्ण स्थिर हो फिर भी वह किसी असफलता को लेकर हल्का परेशान हो तो यह जाग्रत  निपीड़ित अवस्था कहलाती है ।
  7. व्यक्ति अपने कार्यो में पूरा  स्थिर हो किंतु भयभीत हो तो यह "जागृत भीत"  अवस्था कहलाती है । 
  8. व्यक्ति स्वयं के कार्यों में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसकी स्थिरता का नियंत्रण किसी अन्य व्यक्ति या ऊर्जा के हाथ में होने के कारण वह विचलित हो इसे "जागृत विकल" अवस्था कहते हैं ।
  9. पहले व्यक्ति स्वयं के कार्य में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसके कार्य की दिशा गलत कार्यों में हो तो इसे 'जागृत खल' अवस्था कहते हैं । 
  10. व्यक्ति के मध्यम स्थिर होने के साथ यशस्वी होने पर "अर्ध जागृत दीप्त", स्वस्थ होने पर "अर्ध जागृत स्वस्थ",  संतुष्ट होने पर "अर्ध जागृत मुदित " एवं संतुष्टि-असंतुष्टि के प्रश्न पर शांत  होने पर "अर्ध जागृत शांत",  स्थिरता की मध्यम सामर्थ्य के साथ कार्य के प्रति प्रयास करना चाहता हो तो अर्ध जागृत शक्त , असफल हो जाने के कारण स्थिरता से मन भटक रहा हो तो "अर्धजागृत निपीड़ित",  स्थिर हो किंतु भयभीत होने के कारण स्थिरता डगमगा रही हो तो "अर्धजागृत भीत",  मध्यम स्थिरता के साथ किसी अन्य के नियंत्रण में कार्य हो तब "अर्ध जाग्रत विकल"   एवं मध्यम स्थिर होने के साथ गलत कार्यों का स्वभाव रखता हो तो "अर्धजागृत खल" अवस्था कहलाती है ।
  11. किसी व्यक्ति के अंदर स्थिरता बिल्कुल ना हो किंतु यदि वह यशस्वी हो चक्र की "सुप्त दीप्त" अवस्था कहलाती है । यदि अस्थिर व्यक्ति पूर्णता: स्वस्थ हो तो यह "सुप्त स्वस्थ" अवस्था है ।अस्थिर व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ ना हो किंतु संतुष्ट हो ऐसी अवस्था "सुप्त मुदित" कहलाती है । यदि व्यक्ति स्थिरता के प्रश्न पर शांत  हो ऐसी अवस्था "सुप्त  शांत" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति स्वयं की स्थिरता के प्रति चिंतित हो तो ऐसी अवस्था "सुप्त शक्त"  कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति असफलता के कारण दुखी हो ऐसी अवस्था में "सुप्त निपीड़ित" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति भयभीत हो यह अवस्था "सुप्त भीत" और अस्थिर व्यक्ति के अवसाद में होने से "सुप्त विकल"  एवं व्यक्ति के दुष्ट कार्यों में प्रवृत्त होने से "सुप्त खल" कहलाती है ।
यहां उपरोक्त गुणों के अनुसार परीक्षण के बाद निष्कर्ष निकालते हैं की मूलाधार चक्र कितना सक्रिय है और उसे पूर्ण सक्रिय बनाने के लिए कितना कार्य करना अभी शेष है । जितना कार्य करना शेष होता है उसी के अनुसार योग,ध्यान, आहार के साथ अन्य विधियों से उसे एक निश्चित अवधि में नियमित अभ्यास   द्वारा  चक्र को संतुलित किया जा सकता है । 
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                                                                                                             लेख - मानस राजऋषि
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Thursday, August 23, 2018

विचारों का 7 चक्रों पर प्रभाव

विचारों का 7 चक्रों पर प्रभाव - मनुष्य में  यदि सबसे प्रभावी कोई तंत्र है  तो वह है विचार तंत्र। अनेक लोगों द्वारा लिए गए कई अनुभव से यही बात सामने आती है की अधिकांश लोग सतत विचारों में चलते रहतें हैं।  दिनचर्या के क्रियाकर्मों के साथ विचार भी चलते रहतें हैं।  ज्यादातर विचार क्रियाकर्मों से भिन्न होते हैं अर्थात वर्तमान में किए जाने वाले कर्म और विचारों के विषय में भिन्नता हो जाती है।  इस अनुसार हम विचारों को  3 श्रेणी में बांटते हैं। 
1. कर्मसापेक्ष उत्तम श्रेणी  - इसे कर्मसापेक्ष विचार  भी कहेंगे  . यह सबसे उत्तम प्रकृति का विचार है।  यह विचार वर्तमान कर्म के साथ चलता है, अर्थात किए जा रहे कर्म के समय कर्म पर ही सारा विचार एकाग्रचित्त हो जाता है। 
2.कर्मनिर्पेक्ष  मध्यम श्रेणी - इस प्रकार के विचार की प्रकृति कर्म सापेक्ष नहीं होती किन्तु सकारात्मक होती है ।  अर्थात कर्म के समय विचार अन्यत्र है किन्तु सकारात्मक है। 
3.कर्मनिर्पेक्ष  निम्न श्रेणी - इस प्रकार का भी विचार कर्म के सापेक्ष नहीं होता किन्तु यह नकारात्मक होता है।  अर्थात कर्म के समय विचार अन्यत्र है किन्तु खल,चिंतित अथवा अवसाद की स्थिति में है। यही विचार चक्रों के असंतुलन का मुख्य कारक है।  

कैसे होते हैं 7 चक्र प्रभावित ?-   विभिन्न प्रकार के भाव विभिन्न  चक्रों को प्रभावित करते हैं। अलग -अलग  विचारों के अनुरूप भावों का अलग -अलग चक्रों से सम्बन्ध होता है।सकारात्मक विचार चक्रों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं और नकारात्मक विचार नकारात्मक प्रभाव।  किसी एक विषय पर विचार की लम्बे समय तक निरंतरता सकारात्मकता और नकारात्मकता के अनुसार चक्र को सक्रिय और निष्क्रिय भीं करते हैं, जिसे हम निम्नलिखित रूप से समझेंगे-  यदि कोई व्यक्ति धैर्य और स्थिर न रहने के कारण निरंतर दुखी या अवसाद में है तो निश्चित ही  मूलाधार चक्र  असंतुलित हो जायेगा, स्वास्थ्य के बारे में चिंतन भी मूलाधार को प्रभावित करेगा। किसी के भीतर धन संचय न हो पाने के कारण  चिंता अथवा अवसदादात्मक विचार स्वाधिष्ठान को असंतुलित करेंगे। सही निर्णय न ले पाने के कारण चिंता मणिपुर को बाधित करेंगे।  संबंधों अथवा प्रेम प्रसंग में सफलता की चिंता अनाहत को असंतुलित करेंगे।  भीतर की घुटन एवं समृद्धि रुक जाने पर विशुद्धि चक्र का संतुलन बिगड़ेगा।  बहरी अथवा भीतरी नियंत्रण न स्थापित कर पाना अथवा नियंत्रित न कर पाने के कारण चिंता आज्ञा को दुष्प्रभावित करेगी।  
                       उदाहरण के तौर पर 1 दिनपहले एक व्यक्ति का अनुभव लिया।  व्यक्तिकुछ वर्ष पहले  थायरॉइड की समस्या से पीड़ित हो गया जो अभी संतुलित की दिशा में था ।  जन्म समय के चक्र स्टेटस को निकालने पर उसका विशुद्धि संतुलित था किन्तु वर्तमान में असंतुलित।  उससे मैंने प्रश्न किया की कुछ काल  पहले क्या आपको लम्बे समय तक किसी असफलता के कारन घुटन अथवा समृद्धि रुक जाने के कारण अवसाद का शिकार होना पड़ा।  उसने स्वीकार किया कि लम्बे समय तक घुटन एवं असमृद्धि के कारण अवसाद रहा।  ये दोनों विषय विशुद्धि चक्र से सम्बंधित थे,सम्बंधित नकारात्मक विचारों ने विशुद्धि चक्र पर सीधा प्रभाव डाला।  उसने  बताया कि उसे,कुछ दिन  ध्यान करने के बाद वैचारिक परिवर्तन हुआ।  समृद्धि के प्रति वैचारिक सोच परिवर्तित हो गयी और घुटन भी समाप्त हो गयी उसके बाद से थायरॉइड में भी आराम मिलने लगा। 

आप भी कर सकतें हैं विचारों से चक्रों को सन्तुलित और स्वासमाधान - यदि आपकी समझ में यह विचारों का विज्ञान आ जाये तो जीवन के प्रत्येक विषय पर विचार को सकारात्मक करिये। क्योकि प्रत्येक विचार विभिन्न चक्रों से सम्बंधित है।  यदि विचार सकारात्मक नहीं हो पा रहे हैं तब ध्यान योगव्यायाम, प्राणायाम और ध्यान को नियमित अपनाइये।  योग से ज्यादा मददगार कुछ नहीं ,आपके लिए।  अभी हम पहले स्तर में विचार को मध्यम श्रेणी में ही ले जाने की बात करेंगे  अर्थात  कर्म के समय अन्यत्र विचार किन्तु सकारात्मक दिशा की तरफ।  आपका प्रयास और मध्यम श्रेणी के स्तर पर पहुंच जाने पर आप निरंतर रहिए अपने अभ्यास में विचार स्वतः धीरे धीरे उत्तम श्रेणी तक पहुँचने लगेंगे अर्थात कर्म से सापेक्ष। 
ध्यान योग्य बातें - चक्रों को संतुलित -असंतुलित करने में सिर्फ नकारात्मक विचार ही नहीं जिम्मेदार होते हैं बल्कि कर्म भी भूमिका  निभाते  हैं।  यदि आपने   किसी को पीड़ा पहुँचाई है और इस अपराध से आप प्रसन्न भी है तो विषय से सम्बंधित चक्र समृद्ध तो होगा किन्तु चक्र की प्रकृति  नकारात्मक हो जाएगी जो बादमे आपको भी पीड़ित करेंगे किन्तु यदि आप किसी को पीड़ा देने के बाद लज्जित हैं तो लज्जित होने के प्रति पनपने वाला अवसाद विषय से सम्बंधित चक्र को असंतुलित करेगा।  परपीड़ा सम्बन्धी कर्मों के कारण यदि चक्र असंतुलित हुए तो उसका उपचार ध्यान के स्थान पर सर्वप्रथम  कर्मों से ही किया जा सकेगा।  जिसकी मुख्य विधि पश्चाताप अथवा सामने से प्रकट रूप में क्षमा - याचना है।  स्वयं के अपराध की स्पष्ट प्रकट रूप से क्षमा याचना की संतुष्टि आपके भीतर के विचारों को परिवर्तित करेगी जो चक्रों के संतुलन होने में सहायक होगी और यह संतुलन आपको भीतर एवं बाहर से समृद्ध करेगा।  _________लेख- मानस राजऋषि 

Sunday, August 12, 2018

ऊर्जावाद का सिद्धांत


ऊर्जावाद का सिद्धांत
ब्रह्माण्ड  मे व्याप्त पदार्थों में सबसे सूक्ष्म और अदृश्य जो पदार्थ है, वह है ऊर्जा । अध्यात्म जगत को प्रभावित करने वाली ऊर्जाएँ बड़ी विचित्र और भिन्न -भिन्न गुणों वाली होती हैं । ऐसी ऊर्जाए जिन्हे आज तक मेडिकल साइंस भी नही व्यक्त कर पाया वास्तव मे अव्यक्त हैं ।
अपने यहाँ ,आपने सुना देखा होगा । विशेष गुणों की तारीफ करने पर नजर का लग जाना । कुछ लोग इसे बकवास मान सकतें हैं किन्तु पूरी तरह से मै नही । उदाहरण के तौर पर-  मै एक दिन योग की क्लास ले रहा था । मेरा शरीर का लचीलापन असमान्य कहा जा सकता था । उस दिन मेरी क्लास में एक योग की प्रोफेसर । प्रोफेसर होने के बावजूद उनका शरीर भारी था । मेरा लचिलापन उनके भीतर ईर्ष्या उत्पन्न करने के लिए काफी था । उन्होने  ईर्ष्या को  तारीफ के रूप में व्यक्त कर दिया और मैंने उसे मद भाव से युक्त होकर स्वीकार लिया । बस अगले दिन से कमर दर्द शुरू हो गया वह 1 माह तक रहा , फिर उसके बाद एक के बाद ऐसी घटनाएँ ऐसी बनती गईं की मेरा नियमित व्यायाम मुझे बंद रखना पड़ा , जिसका परिणाम यह रहा की मेरा लचिलापन जाता रहा । मुझे इसका आभास हो रहा था । मैंने भीतर काम करके उस नकारात्मक ऊर्जा को प्रयास के साथ निकाल दिया दूसरे ही दिन से सुधार होने लगा । अभी बहुत ही सकारात्मक स्थिति पुनः प्राप्त हों गयी ।

उपरोक्त घटना नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव का एक उदाहरण हैं ।इसी प्रकार  आपने भी कभी न कभी ऊर्जाओं के प्रभाव को अवश्य अनुभव किया होगा । किसी अच्छे व्यक्ति का हाथ सर पर पड़ जाना समृद्धि को बढ़ाने की दिशा में कार्य करने लगता है ।
ऊर्जाओं को पढ़ कर समझना आसान हो सकता है , किन्तु जब तक भीतर की साधना न की जाए इन ऊर्जाओं को महसूस करना असंभव है । स्वयं के जितने विषय उतनी ऊर्जाएँ । प्राण ऊर्जा और शरीर को जीवंत रखने वाली जीवनी ऊर्जा इन सभी ऊर्जाओं मे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है । विभिन्न विषयों से संबन्धित ऊर्जाओं के आवेशात्मक  रूप से दो भेद हैं ,-एक सकारात्मक ऊर्जा दूसरी नकारात्मक ऊर्जा । किसी विषय से संबन्धित ऊर्जा किसी व्यक्ति में एक ही आवेश की उपस्थित रह सकती है । सकारात्मक अथवा नकारात्मक ।
 स्वयं के मुख्य अन्य महत्वपूर्ण विषयों से संबन्धित विभिन्न सकारात्मक  ऊर्जाएँ – स्थिर मनऊर्जा, प्रेमऊर्जा,कर्मऊर्जा, संबंधऊर्जा, सुखकारक ऊर्जा, ज्ञानऊर्जा, सौभाग्यऊर्जा, लाभऊर्जा ।
ठीक इसी प्रकार विषयों की विभिन्न नकारात्मक ऊर्जाएँ भी इस प्रकार हैं – अस्थिर मन ऊर्जा, द्वंद ऊर्जा, अकर्मी ऊर्जा, शत्रु कारक ऊर्जा, दुख कारक ऊर्जा, अज्ञान ऊर्जा, दुर्भाग्य ऊर्जा, व्यय ऊर्जा ।
दुखी इंसान के दुख का प्रारब्ध भीतर प्रवेश करने वाली मात्र एक नकारात्मक ऊर्जा ही होती है जो बाद मे अन्य सकारात्मक ऊर्जाओं को बाहर निकाल नकारात्मक ऊर्जाओं को आमंत्रित करने का प्रयास करती है । ऊर्जाओं के प्रवेश के निम्नलिखित माध्यम हो सकतें हैं ।
स्थान विशेष – स्थान विशेष  सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जाओं से प्रभावित होतीं हैं । जहाँ भ्रमण करने से ऊर्जा पहले तो आभामंडल के संपर्क में आकार साथ हो लेती है फिर बाद में उसका प्रवेश भीतर हो जाता है ।
क्रिया विशेष – ऊर्जाओं को आमंत्रित करने हेतु क्रियाओं और साधनाओं द्वारा भी ऊर्जा को प्रकट कर उसे भीतर सुरक्षित किया जाता है ।
परक्रिया विशेष – किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ऊर्जाओं को आमंत्रित कर अन्य व्यक्ति को प्रभावित करना ।
विचार विशेष – व्यक्ति का जैसा विचार स्तर होता है वैसा ही उसका व्यवहार होता है एवं वैसी ही ऊर्जा उसके भीतर संरक्षित होने लगती है ।
संस्कारजन्य ऊर्जा – कुछ लोगों में परिवारजन्य अथवा पूर्वजन्मजन्य संस्कार के कारण प्राप्त ऊर्जाओं का संरक्षण होता है ।
 दुर्भाव जन्य विशेष – उपरोक्त उदाहरण के अनुसार नजर लगना । मूलतः सभी उद्वेग नजर के द्वारा नहीं उत्पन्न होते किन्तु इसका प्रभाव परव्यक्ति द्वारा ईर्ष्या के भाव स्वरूप अभिव्यक्ति और दंभ रूप में उसकी स्वयं स्वीकरोक्ति द्वारा होता है ।
घटना विशेष – जीवन में सुख ,दुख,सफलता,असफलता आदि घटनाएँ भी भीतर के भाव को बदलकर सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जाओं के निर्माण का कार्य करतीं हैं ।
उम्र विशेष – उम्र के अनुसार भी ऊर्जाओं के निर्माण और क्षय का समय आता है वे उसी भांति प्रभाव उत्पन्न करतीं हैं । 

अव्यक्त ऊर्जाओं का खेल
कुछ मूढ़ लोग इन उर्जाओं को व्यक्त रूप मे जानने के लिए प्रयोग करतें हैं । ऊर्जाए अवक्त हैं और इन्हें अवक्त रूप में ही समझना पड़ेगा । उर्जाओं को समझने और उनके द्वारा स्थिति परिवर्तित करने के अनेकों सिद्धांत हैं । जिनमें से कुछ निम्न हैं –
चित्त वृत्ति निरोध – भीतर की ऊर्जाओं को आप तब तक नहीं समझ सकते जब तक मन भटकाव की स्थिति में है । ऊर्जाओं को पहले समझना होगा उसके लिए मन को भटकाव से मुक्त कर एक जगह टिकने का प्रयास करना होगा ।
परमार्थ – परमार्थ अर्थात दूसरों पर उपकार करना । हर जीव के भीतर अलग अलग तरह की ऊर्जाएँ होती हैं । परमार्थ के कार्य को निरंतर करते रहने से परपीड़ा का आभास होने लगता है । उनके द्वारा निकली भीतरी शुभकामनाएँ स्वयं की भीतरी ऊर्जाओं को सकारात्मक दिशा की तरफ परिवर्तित करने लगतीं हैं । आपको तब भीतर से कुछ बदलने की हलचल प्रतीत होती , बस समझिए भीतर ऊर्जाओं का खेल चल रहा है ।
योग साधना – योग साधना और प्राणायाम के द्वारा भीतर की ऊर्जाओं का सकारात्मक परिवर्तन होगा । व्यावहारिकता आश्चर्यजनक रूप से बदलने लगेगी । यदि उस समय भीतर इस परिवर्तन को समझने का प्रयास किया जाए तो ऊर्जाओं का भीतरी खेल महसूस होने लगेगा ।
क्रियाएँ – कुछ विधियाँ हैं ऊर्जाओं को प्राप्त कर सुरक्षित करने और जरूरत पड़ने पर स्वयं के लिए अथवा किसी अन्य जीव की पीड़ा पर उसे प्रदान करने की । ऊर्जाओं की विधियों का उपयोग विशिष्ट साधना के स्तर पर प्राप्त हो सकता है ।

ऊर्जाएँ जीवित के जीवन को सुख में रखने अथवा दुख को भोगने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभतीं हैं । जिस प्रकार हम सकारात्मक ऊर्जाओं को संरक्षित करने और सही समय पर उसके उपयोग की बात करते हैं उसी प्रकार नकारात्मक ऊर्जाएँ भी संरक्षित कर लोग किसी को दुखी करने के लिए प्रयोग में लातें हैं । किन्तु नकारात्मक ऊर्जाओं को संरक्षित करना स्वयं की भी हानि करना है।  यदि किसिने क्रोध,दुर्भाववश किसीका कोई नुकसान करने का प्रयास किया  जो उसयोग्य नहीं है तो निश्चित ही वह ऊर्जा व्यक्ति का नुकसान करने के लिए पूरा कार्य न करके अथवा कुछ अंश में बचकर नुकसान करने वाले का भी नुकसान करेगी एवं नुकसान खाने वाले की पीड़ा अवश्य नुकसान करने वाले के भीतर नकारात्मक रूप में प्रकट होकर नुकसान का ही कार्य करेगी ।
हमेशा भला विचार करें – भीतर सकारात्मक ऊर्जाओं की वृद्धि स्वयं की समृद्धि के लिए पर्याप्त कार्य करती है । भीतर सकारात्मक ऊर्जाओं की वृद्धि का सबसे मुख विकल्प यही है की हमारा विचार एवं कर्म पुरुषार्थी एवं परमार्थी रहे । ____________________________आलेख मानस राजऋषि  


Thursday, August 9, 2018

स्वयं को केंद्रस्थ करने का सिद्धान्त

यह सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है । व्यक्ति - जब वह स्वयं को केंद्रस्थ  करता है तब प्रकृति की हर एक वस्तु और जीव उसकी केंद्रस्थ शक्ति के अनुसार उसकी तरफ आकर्षित होने लगतें हैं । स्वयं को केंद्रस्थ करना एक बहुत बड़ी तैयारी है । जब तक व्यक्ति स्वयं को केन्द्रित नही करता तब तक वह किसी न किसी मान्यतावाद से उलझा रहता है । जिस मान्यता का व्यक्ति अनुसरण कर रहा है वह केन्द्रित है और अनुसरण करने वाला उसके चारों तरफ चक्कर काट रहा अकेंद्रित है । व्यक्ति सुख - समृद्धि और मृत्यु के बाद मुक्ति  चाहता है जिसके लिए उसकी धारणा बना दी जाती है वह किसी मान्यता का अनुसरण कर चक्कर काटे ।

गिने - चुने व्यक्ति मान्यताओं को मानतें -मानतें थक जटें हैं । मान्यताओं की विवशता से छूटकर  स्वतंत्र हो जातें हैं ।  स्वतंत्र होना कठिन हैं । मान्यताएँ रक्षा कवच की तरफ प्रतीत होतीं हैं । जब व्यक्ति मान्यताओं के अलग होता तब वह भ्रांतिदर्शन, मिथ्यावाद, अवतार पूजावाद से भी पृथक हो जाता है ।
यह अत्यंत मुश्किल है । पूरी तरह से स्वतंत्र होना अर्थात स्वयं का रक्षा कवच भी स्वयं तैयार करना । स्वयं स्वतंत्र होने के बाद मान्यतावादी लोग आपसे पृथक हो जातें हैं । मान्यतावादी लोग भेड़ों के झुंड की तरह होटें हैं । जब आप स्वतंत्र होकर अकेले पड़ जाते हो तब झुंड की एक भी भेड़ आपकी तरफ नही आएगी ।
स्वतंत्र होकर स्वयं के द्वारा ही अस्तित्व को समझने का आपको अवसर मिलता है । आप द्रष्टा बन जाते हो । सही अर्थों मे जब आपको अस्तित्व  समझने के लिए किसी ग्रन्थों अथवा  उपदेशक के स्थान पर स्वयं की द्रष्टा शक्ति ,अनुभव और प्रयोग का उपयोग करते हो तो समझना आसान हो जाता है । आप द्रष्टाबन  जितना समझोगे उससे आगे का समझने के लिए आपको पिछला समझा हुआ, व्यवहार मे लाना होगा ।
व्यवहार जैसे -जैसे  आपकी प्रकृति का अंग बनता जाएगा  आपकी भीतर की शक्ति जाग्रत होती जाएगी । केद्रस्थ होने का सिद्धान्त उसी तरह से कार्य  करता है जैसे विशालकाय ग्रह जिसके चारों तरफ उपग्रह घुमतें हैं । आपको ग्रह के समान स्वयं का अस्तित्व पैदा करने के लिए उसी प्रकार का गुरुत्वाकर्षण के समान बल भी उत्पन्न  करना होता है  ।
निरंतर अन्तः साधना आपकी आंतरिक शक्ति का विकास  करने लगती हैं ।  यह एक साधना है । फलप्रपति की चाह के रहित साधना । फल प्राप्ति की चाह हेतु प्रयत्न भी मान्यतावाद है । स्वतन्त्रता के विरुद्ध है । आपको तो वहीं से व्यवहारिक  होना है जो अपने द्रष्टा बन समझा है ।
दर्शन शास्त्र की पुस्तकों को पढ़ने , समझने और व्यवहार में लाने वाला व्यक्ति दर्शन शास्त्र का ज्ञाता हो सकता है किन्तु दार्शनिक नहीं । स्वयं द्रष्टा बन जाना , अपने अनुभव के आधार पर व्यवहार में लाना और भीतर के विकसित होते आत्मबल को अनुभव करना ही सही अर्थों में दार्शनिक बन जाना है ।


जब स्वयं का अस्तित्व द्रष्टा बन , अस्तित्व को समझने की शक्ति विकसित कर लेता है और समृद्ध आत्मबल चारों तरफ के व्याप्त अनेकों वस्तु और जीवों  को आपकी तरफ आकर्षित करने लगता है तब आप उस  शक्तिशाली  ग्रह की तरह बन जातें  हैं जिसके चारों तरफ उपग्रह चक्कर काट रहें हों ।
जब तक आप स्वयं को केंद्रस्थ नही करते तबतक ब्रह्मांड के चारों तरफ का अस्तित्व आपसे अलग-अलग  दूरी पर है । जब आप स्वयं को केंद्रस्थ करते हो तब ब्रह्मांड चारों तरफ आपसे बराबर दूरी पर बराबर हो जाता है । यीशु,कबीर,स्वामी विवेकानंद आदि महापुरुषों ने भी स्वयं को पूर्ण केंद्रस्थ किया जिसके कारण ही वे समाज को मान्यतावाद से पृथक कर केंद्रस्थ होने की दिशा देने के लिए तत्पर रहे ।
जब  निरंतर केद्रस्थ हो शक्तिशाली बनते हो ,प्रकृति की अनेक वस्तुएँ उपग्रह की तरह आपके चारों तरफ चक्कर काटने हेतु तैयार हैं तब भेड़ों का झुंड भी कहाँ शांत रहने वाला है ।
____________________________________________________लेख-मानस राजऋषी