यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तब हम आपको धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंडों, बहुत अधिक पूजा पाठ, कर्म क्रिया कांड, तंत्र मंत्र अथवा धार्मिक आश्रमों में जाकर साधनाओं में समय गवाने की बात बिल्कुल नहीं करेंगे, क्योकि इनसे आप बिलकुल समृद्ध नहीं होने वाले। हम सिर्फ गीता में लिखी वह महत्वपूर्ण बात कहेंगे जिसके ऊपर श्रीकृष्ण ने बार-बार इंगित किया और वह बात है सही तरीके से स्वयं के कर्म में संलग्न हो जाना। जब तक हम सही तरीके से कर्म में संलग्न नहीं होते हैं तब तक अधिक पैसे का लोभ और काल्पनिक सफलता की लालसा के कारण कई जगह हाथ पाव आजमाते रहते हैं और हर बार निष्कर्ष विचार स्वरुप में यही आता है कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं है। हमें कुछ अन्य के लिए प्रयत्न करना चाहिए और यह प्रयास बार-बार करते हुए एक दिन वह उम्र निकल जाती है कि आप पिछली उसी शक्ति के साथ बार-बार प्रयास कर सकें ! तब तो सिर्फ पेट भरने के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति के कारण प्रयास होता है यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तो आप का कर्म है -पुरुषार्थ साधना करिए और समृद्ध बनिए।
हम समृद्ध होने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं किंतु यह सारा प्रयत्न हमारे स्वयं से बाहर की तरफ होता है और जितने लोग यह सारा प्रयत्न बाहर की तरफ कर रहे हैं, हमारे सर्वेक्षण के अनुसार कोई भी समृद्धि नहीं मिले. समृद्धि का अर्थ स्वास्थ्य के प्रति संबंधों के प्रति, संपत्ति के प्रति, परिवार के प्रति, व्यवसाय के प्रति संतुष्टि की भावना और हमेशा सकारात्मक विचार, प्रेम, दया भाव और सदैव आनंदित,रचनात्मक प्रवृत्ति। समृद्ध व्यक्तियों के चेहरे पर सदैव यह समृद्धि साफ-साफ झलकती है।
असमंजस का विषय है योग साधक बंधु यह समझते हैं कि महर्षि पतंजलि ने चित्त को एक जगह पर स्थिर करने का हेतु सिर्फ योगी बनने के लिए अथवा समाधि या मोक्ष प्राप्त करने के लिए कहा है किंतु ध्यान रखिए आप गृहस्थ जीवन में हैं इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात आपके समृद्ध होने के लिए है। जब तक आप समृद्ध नहीं होंगे तब तक पूर्णत: संतुष्ट नहीं होंगे और जब तक संतुष्ट नहीं होंगे तब तक समाधि या मोक्ष पाना असंभव है। इस समृद्धि को प्राप्त करने के लिए कि आपको सबसे पहले स्वयं को स्थिर करने का प्रयास करना होगा। स्थिरता से मूलाधार चक्र सही गति में चलने लगता है और उससे प्रदीप्त होने वाली ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। मूलाधार चक्र से प्रदीप्त ऊर्जा स्वाधिष्ठान को प्रभावित और संतुलित करती है। स्वाधिष्ठान के संतुलित होने से आपके पास आप को समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ाने हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध होने शुरू हो जाते हैं। मूलाधार की ऊर्जा सुसुम्ना के रास्ते मणिपुर चक्र तक पहुंच कर मणिपुर को संतुलित करने लगती है तब हमारे भीतर उपलब्ध संसाधनों के सही विवेक का ज्ञान होने लगता है , स्वभाव में सौम्यता आ जाती है।
जब यह ऊर्जा सुसुम्ना के रास्ते अनाहत में पहुंचती है तब स्वयं के कर्म के प्रति अपार लगाव हो जाता है। जिसके कारण व्यक्ति स्वयं के कर्म को तत्परता से करने लगते हैं। और जब यही ऊर्जा विशुद्धि तक पहुंच कर विशुद्धि को संतुलित करती है तब हमारे कर्म का विस्तार होना प्रारंभ हो जाता और हमारे कर्म का विस्तार हमारी समृद्धि की दिशा में पहला कदम होता है। उपलब्धियों के साथ यदि हमारे कर्म और संगठन पर हमारा नेतृत्व और पूर्ण नियंत्रण स्थापित ना हो तब भी हम इसको समृद्धि नहीं कह सकते हैं। आज्ञा चक्र तक उर्जा का पहुंचना और संतुलित होना ,हमें नियंत्रण करने की पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करता है और राजयोग की तरफ भी स्वयं की दिशा को प्रशस्त करता है।
किंतु इन सब प्रयत्नो के द्वारा समृद्धि प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले चिंतन, मनन और ध्यान में जाना होगा और पाखंडों का त्याग करना होगा। जिससे एक ही रास्ते पर चलना आसान हो सके।
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