Tuesday, September 4, 2018

मूलाधार चक्र परीक्षण, प्रभाव

मूलाधार चक्र -

मजबूत आधार के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं . जीवन में 90% से अधिक समस्याएं जीवन के संघर्ष और भटकाव के कारण होती है . यह कार्य मुख्य रूप से मूलाधार चक्र के असंतुलन के कारण होता है . जैसा कि अनेक ग्रंथों में वर्णन है -चार पंखुड़ियों वाला लाल कमलवत  स्वरूप ,रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में स्थित होता है . इसकी ऊर्जा का  मुख्य स्थान गुदाद्वार और जननेंद्रिय के बीच होता है .जीवन के मुख्य गुणों में यह जीवन की स्थिरता का नियंत्रण करता है . टेस्टिकल और एड्रिनल ग्रंथियों का क्षेत्र ज्ञानेंद्रिय नासिका . चक्र की कर्मेंद्रिय गुदा, मुत्रपिंड, मेरुदंड एवम विसर्जन पर नियंत्रण करने का कार्य . इसके संतुलन से शरीर में मस्सा ,कैंसर, घुटनों की समस्या और फोबिया जैसे समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है योग ध्यान द्वारा मनपूर्वक साधना से जागृत और संतुलित किया जा सकता .


चक्र का परीक्षण, प्रभाव - 
और इन अवस्थाओं के अतिरिक्त हर चक्रों की दीप्त आदि 9 अवस्थाएं होती हैं व्यक्ति के गुणों के आधार पर और व्यक्ति के जीवन में चल रही स्थितियों के आधार पर हम चक्रों की अवस्थाओं को समझते हैं . किंतु इसके अतिरिक्त भी वैदिक विधि द्वारा  जन्म समय के चक्रों की अवस्था को अवश्य जान लेना चाहिए इससे उसके जीवन के संस्कार में चक्रों की क्या स्थिति है इसका ज्ञात हो जाने से चक्रों का संतुलन करना आसान हो जाता है ।

हम स्वयं के प्रति अथवा  किसी अन्य व्यक्ति के प्रति , नीचे लिखे गुणों के अनुसार से जान सकते हैं कि मूलाधार चक्र कितना जागृत और दीप्त अवस्था में  है । प्रारंभ में सबसे जाग्रत स्वरूप को रखते हुए नीचे अगले अन्य क्रमों में चक्रों का बल घटते क्रम में निम्नलिखित है -
  1. यदि व्यक्ति अपने जीवन में पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और उसका  चारों तरफ यश प्रदीप्त हो रहा है तो या "जागृत दीप्त" अवस्था  कहलाती है ।
  2. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और पूरी तरह से स्वस्थ हो . गम्भीर हो और सामजिक कर्यो में प्रवृत्त  यह" जागृत स्वस्थ"  अवस्था कहलाती है. 
  3. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्यों को कर रहा हो और स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण संतुष्ट हो तो यह "जागृत मुदित" अवस्था कहलाती है । 
  4. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण स्थिर हो और संतुष्टि और असंतुष्टि के प्रश्न पर वह शांत हो तो या "जागृत शांत" अवस्था कहलाती है । 
  5. यदि व्यक्ति स्थिरता के साथ कार्य करने की सामर्थ्य रखता हो किंतु अभी विशेष कार्य का अवसर हाथ न लग पाने के कारण प्रतीक्षारत हो तो यह "जागृत शक्त" अवस्था कहलाती है । 
  6. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्य पूर्ण स्थिर हो फिर भी वह किसी असफलता को लेकर हल्का परेशान हो तो यह जाग्रत  निपीड़ित अवस्था कहलाती है ।
  7. व्यक्ति अपने कार्यो में पूरा  स्थिर हो किंतु भयभीत हो तो यह "जागृत भीत"  अवस्था कहलाती है । 
  8. व्यक्ति स्वयं के कार्यों में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसकी स्थिरता का नियंत्रण किसी अन्य व्यक्ति या ऊर्जा के हाथ में होने के कारण वह विचलित हो इसे "जागृत विकल" अवस्था कहते हैं ।
  9. पहले व्यक्ति स्वयं के कार्य में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसके कार्य की दिशा गलत कार्यों में हो तो इसे 'जागृत खल' अवस्था कहते हैं । 
  10. व्यक्ति के मध्यम स्थिर होने के साथ यशस्वी होने पर "अर्ध जागृत दीप्त", स्वस्थ होने पर "अर्ध जागृत स्वस्थ",  संतुष्ट होने पर "अर्ध जागृत मुदित " एवं संतुष्टि-असंतुष्टि के प्रश्न पर शांत  होने पर "अर्ध जागृत शांत",  स्थिरता की मध्यम सामर्थ्य के साथ कार्य के प्रति प्रयास करना चाहता हो तो अर्ध जागृत शक्त , असफल हो जाने के कारण स्थिरता से मन भटक रहा हो तो "अर्धजागृत निपीड़ित",  स्थिर हो किंतु भयभीत होने के कारण स्थिरता डगमगा रही हो तो "अर्धजागृत भीत",  मध्यम स्थिरता के साथ किसी अन्य के नियंत्रण में कार्य हो तब "अर्ध जाग्रत विकल"   एवं मध्यम स्थिर होने के साथ गलत कार्यों का स्वभाव रखता हो तो "अर्धजागृत खल" अवस्था कहलाती है ।
  11. किसी व्यक्ति के अंदर स्थिरता बिल्कुल ना हो किंतु यदि वह यशस्वी हो चक्र की "सुप्त दीप्त" अवस्था कहलाती है । यदि अस्थिर व्यक्ति पूर्णता: स्वस्थ हो तो यह "सुप्त स्वस्थ" अवस्था है ।अस्थिर व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ ना हो किंतु संतुष्ट हो ऐसी अवस्था "सुप्त मुदित" कहलाती है । यदि व्यक्ति स्थिरता के प्रश्न पर शांत  हो ऐसी अवस्था "सुप्त  शांत" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति स्वयं की स्थिरता के प्रति चिंतित हो तो ऐसी अवस्था "सुप्त शक्त"  कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति असफलता के कारण दुखी हो ऐसी अवस्था में "सुप्त निपीड़ित" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति भयभीत हो यह अवस्था "सुप्त भीत" और अस्थिर व्यक्ति के अवसाद में होने से "सुप्त विकल"  एवं व्यक्ति के दुष्ट कार्यों में प्रवृत्त होने से "सुप्त खल" कहलाती है ।
यहां उपरोक्त गुणों के अनुसार परीक्षण के बाद निष्कर्ष निकालते हैं की मूलाधार चक्र कितना सक्रिय है और उसे पूर्ण सक्रिय बनाने के लिए कितना कार्य करना अभी शेष है । जितना कार्य करना शेष होता है उसी के अनुसार योग,ध्यान, आहार के साथ अन्य विधियों से उसे एक निश्चित अवधि में नियमित अभ्यास   द्वारा  चक्र को संतुलित किया जा सकता है । 
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                                                                                                             लेख - मानस राजऋषि
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