महापर्युषण का पावन पर्व । प्रार्थना होगी , आराधना होगी, अपराधबोध होगा और अपराध के प्रति पश्चाताप होगा । फिर एक दिन आएगा जब सब अपने मोबाइल पर एक अच्छा सा मैसेज बनाकर अथवा कोई फोटो जिसमें सुंदर अक्षरों में लिखा होगा "मिच्छामी-दुक्कड़म" की पोस्ट चारो तरफ सेंड करना शुरू हो जाएगा । कोई भी इंसान, कोई भी ग्रुप , कोई भी सोशल मीडिया नहीं छूूटना चाहिए । "मिच्छामी दुक्कड़म" की पोस्ट मूसलाधार बरसात की तरह आती है । फिर उन्हीं चेहरों को साल भर देखता हूं , कोई जनता का खून चूस रहा ,कोई किसी के साथ अन्याय कर रहा , कोई किसी को गलत फंसा रहा, कोई किसी के साथ अत्याचार कर रहा ।
यह पावन पर्व साधना,आराधना अपराधबोध ,पश्चाताप फिर समापन और चारों तरफ "मिच्छामी दुक्कड़म"- "मिच्छामी दुक्कड़म" की बौछार प्रारंभ । हमें नहीं लगता गृहस्थ जीवन में इस तरह की पर्युषण पर्व की पूरी साधना करने वाले सभी लोग वास्तव में मन और भाव से साधना करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे सिर्फ अपने रीति रिवाजों को पूरा कर पर्युषण के दिन को खत्म कर मिच्छामी दुक्कड़म - मिच्छामी दुक्कड़म करने लगते हैं ।. क्षमा याचना के मामले में बौद्ध धारण के अपराधबोध और क्षमा याचना के ढंग से मैं प्रभावित हूं । यदि जाने और अनजाने में किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति के साथ अन्याय किया है तो वह स्पष्ट रुप से पीड़ित को यह कह कर क्षमा याचना करता है ,मैंने आपके साथ इस प्रकार का अन्याय किया है और आप को इस रुप में पीड़ा पहुंचाई इसलिए उसके प्रति मैं आपसे क्षमा याचना करता हूं । किंतु "मिच्छामी दुक्कड़म" शब्दों के साथ में कुछ अपूर्णतायें हैं ।
वे अपूर्णता है यदि पूरी हो जाए तो "मिच्छामी दुक्कड़म" सही अर्थों में बहुत शक्तिशाली रूप में समाज को अपराध ना करने के लिए प्रेरित करेगा । इस पर्व में अपराधबोध का भली प्रकार से चिंतन कर लेना चाहिए। स्वयं के द्वारा किसके प्रति अपराध हुआ । "मिच्छामी दुक्कड़म" के शब्दों को व्यक्त करने के लिए सबसे पहले उन व्यक्तियों को खोजना चाहिए जिनके प्रति आपने जानबूझकर अपराध किया । जिसके प्रति अपराध हुआ । अपराध की स्पष्टता करते हुए क्षमा याचना करनी चाहिए ।. "मिच्छामि दुक्कड़म" को तभी पूर्ण कह सकते हैं जब तक अपराध करने वाले की आंखों में वास्तविक पीड़ा दिखाई दे और स्वयं के अपराध के प्रति क्षमा याचना के साथ पीड़ित व्यक्ति संतुष्ट हो जाए । तब तक "मिच्छामि दुक्कड़म" ठीक उसी प्रकार अधूरा है जैसे धर्मों के अन्य रीति रिवाजों का पालन हम भली-भांति तो करते हैं किंतु भाव विहीन हो कर । "मिच्छामि दुक्कड़म" का यह प्रयोजन आज के समय मेें दिखावे की वस्तु भर बनकर रह गया है । न तो अन्य धार्मिक रीति-रिवाज समाज की दिखावे की वस्तु है और ना ही "मिच्छामी- दुक्कड़म" कोई दिखावे की वस्तु है । इन सभी का तात्पर्य और उद्देश्य सिर्फ एक ही है स्वयं के अंदर पवित्रता का उदय हो जाए , मृत्यु के बाद की गति अतिउत्तम हो जाए अन्यथा रीति-रिवाज और "मिच्छामि दुक्कड़म" में समय व्यर्थ होकर उसी तरह से निकल जाएगा जैसे कई जन्मों की यात्राओं में समय निकल जा रहा । भले ही शास्त्रों में विशेष बातें लिखी हूं किंतु सत्य यही है आपका जन्म किसी भी धर्म में हुआ है जब तक आप अंतःकरण को पवित्र नहीं करेंगे तब तक अनंत जन्मों की यात्रा समाप्त होने वाली नहीं - "मिच्छामी दुक्कड़म"
--------------------------------------------------------------------------------Artical by - Manas Rajrishi
यह पावन पर्व साधना,आराधना अपराधबोध ,पश्चाताप फिर समापन और चारों तरफ "मिच्छामी दुक्कड़म"- "मिच्छामी दुक्कड़म" की बौछार प्रारंभ । हमें नहीं लगता गृहस्थ जीवन में इस तरह की पर्युषण पर्व की पूरी साधना करने वाले सभी लोग वास्तव में मन और भाव से साधना करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे सिर्फ अपने रीति रिवाजों को पूरा कर पर्युषण के दिन को खत्म कर मिच्छामी दुक्कड़म - मिच्छामी दुक्कड़म करने लगते हैं ।. क्षमा याचना के मामले में बौद्ध धारण के अपराधबोध और क्षमा याचना के ढंग से मैं प्रभावित हूं । यदि जाने और अनजाने में किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति के साथ अन्याय किया है तो वह स्पष्ट रुप से पीड़ित को यह कह कर क्षमा याचना करता है ,मैंने आपके साथ इस प्रकार का अन्याय किया है और आप को इस रुप में पीड़ा पहुंचाई इसलिए उसके प्रति मैं आपसे क्षमा याचना करता हूं । किंतु "मिच्छामी दुक्कड़म" शब्दों के साथ में कुछ अपूर्णतायें हैं ।
वे अपूर्णता है यदि पूरी हो जाए तो "मिच्छामी दुक्कड़म" सही अर्थों में बहुत शक्तिशाली रूप में समाज को अपराध ना करने के लिए प्रेरित करेगा । इस पर्व में अपराधबोध का भली प्रकार से चिंतन कर लेना चाहिए। स्वयं के द्वारा किसके प्रति अपराध हुआ । "मिच्छामी दुक्कड़म" के शब्दों को व्यक्त करने के लिए सबसे पहले उन व्यक्तियों को खोजना चाहिए जिनके प्रति आपने जानबूझकर अपराध किया । जिसके प्रति अपराध हुआ । अपराध की स्पष्टता करते हुए क्षमा याचना करनी चाहिए ।. "मिच्छामि दुक्कड़म" को तभी पूर्ण कह सकते हैं जब तक अपराध करने वाले की आंखों में वास्तविक पीड़ा दिखाई दे और स्वयं के अपराध के प्रति क्षमा याचना के साथ पीड़ित व्यक्ति संतुष्ट हो जाए । तब तक "मिच्छामि दुक्कड़म" ठीक उसी प्रकार अधूरा है जैसे धर्मों के अन्य रीति रिवाजों का पालन हम भली-भांति तो करते हैं किंतु भाव विहीन हो कर । "मिच्छामि दुक्कड़म" का यह प्रयोजन आज के समय मेें दिखावे की वस्तु भर बनकर रह गया है । न तो अन्य धार्मिक रीति-रिवाज समाज की दिखावे की वस्तु है और ना ही "मिच्छामी- दुक्कड़म" कोई दिखावे की वस्तु है । इन सभी का तात्पर्य और उद्देश्य सिर्फ एक ही है स्वयं के अंदर पवित्रता का उदय हो जाए , मृत्यु के बाद की गति अतिउत्तम हो जाए अन्यथा रीति-रिवाज और "मिच्छामि दुक्कड़म" में समय व्यर्थ होकर उसी तरह से निकल जाएगा जैसे कई जन्मों की यात्राओं में समय निकल जा रहा । भले ही शास्त्रों में विशेष बातें लिखी हूं किंतु सत्य यही है आपका जन्म किसी भी धर्म में हुआ है जब तक आप अंतःकरण को पवित्र नहीं करेंगे तब तक अनंत जन्मों की यात्रा समाप्त होने वाली नहीं - "मिच्छामी दुक्कड़म"
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