Thursday, September 13, 2018

वर्तमान योग का विस्तार - कोई अकारण घटना नहीं

र्तमान समय में योग के प्रति लोगों की आस्था जिस प्रकार से बढ़ी है  वह वास्तव में आश्चर्यजनक है । पिछले 50 वर्ष पूर्व बहुत कम लोग योग को जानते थे एवं अभ्यास करते थे ।  वर्तमान में दुनिया का हर  व्यक्ति ग्लोबल नेटवर्क से जुड़ चुका है और योग को जानता है  । प्रकृति में कोई घटना अकारण नहीं घटती है । आपने देखा होगा कि बारिश के समय चीटियों की पीठ पर पंख निकल आते हैं यह घटना प्रकृति की एक विचित्र देन है जो चीटियों को बारिश में सुरक्षित करने के काम आती है  । ठीक इसी तरह प्रकृति हर एक जीव जंतु के लिए ऐसी विशेष परिस्थितियों ,जिस समय किसी विशेष जाति समुदाय का पूरा कुल समाप्त होने की स्थिति में आ जाता है तो प्रकृति कहीं ना कहीं से कोई ऐसा विकल्प तैयार रखती है जिससे अल्पसंख्या में जाति विशेष का अंश सुरक्षित रह कर पीढ़ियों को आगे बढ़ा सकता है । विचार करने वाली बात यह है कि इंसानों के अंदर शक्ति रुप में ऐसा कौन सा विकल्प है जो ऐसी विशेष परिस्थिति के बाद अंश मात्र को सुरक्षित रख सके ।
सामान्य लोगों की समझ में  यह बात शायद ना आए किंतु योगी प्रकृति के लोग जो स्वयं को सिद्ध कर प्रज्ञाचक्षु बन गए हैं उनको भविष्य में आती हुई महाप्रलय की लीला अवश्य दिखाई देती होगी । भोगी प्रकृति के लोगों को कोई चिंता नहीं है । वे तो वर्तमान में ही आनन्द से जीने को परम कर्तव्य मान रहे हैं और वर्तमान के भोग में तल्लीन हो आनंद ले रहे हैं । धीरे-धीरे नज़दीक आती प्रलय की लीला भोगी प्रकृति के लोगों को भला कहां से दिखाई पड़ेगी । मैं नहीं अनेकों भविष्यवक्ता और सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने  नजदीक आती महाप्रलय लीला को स्वीकार किया है । बस सब की भविष्यवाणियों के  बताए गए समय में शायद थोड़ा बहुत अंतर हो किंतु यह अवश्य तय है । यदि अभी की परिस्थिति में हमें यह शुरुआत नहीं दिखाई दे रही हो तब हमसे ज्यादा चिंतनीय और कोई अन्य नहीं है । आज के परिवेश में यदि आप ग्लेशियर के पिघलने की स्थिति को देखेंगे तो पिछले 100 सालों में ग्लेशियर इतना ज्यादा विकृत हो चुका है जितना कि पिछले 10000000 वर्षों में नहीं हुआ । ठीक इसी तरह से  पिछले  100 सालों में अनेक नदियां सिर्फ नाम बनकर के रह गई उनका पानी नदारद हो चुका है ,बची हुई नदियों का जल पूरी तरह से दूषित हो चुका है और वायु में जहरीली गैसों का अनुपात बहुत ज्यादा बढ़ चुका है । पूरी धरती पर जितने भी वृक्ष हैं  उनके ऑक्सीजन उगलने का अनुपात वातावरण में फैले जहर के अनुपात से कम हो चुका है । पिछले 100 सालों में अलग-अलग जगह पर विनाश की लीलाओं ने बहुत सारे संकेत दिए किंतु यह भी सत्य है ना तो अब मनुष्यों को पिछले 500 साल मे वापस भेजा जा सकता है और ना ही करीब आती प्रलय की इस लीला को रोका जा सकता है । अब तो सिर्फ प्रलय की उस लीला से स्वयं को सुरक्षित निकाल सकने के लिए तैयारी की जा सकती है और उस तैयारी के लिए  "लैमार्क" के सिद्धांत के अनुसार जो योग्य होगा वह अवश्य बचेगा ।  प्रकृति के इस चुनाव में  योग्य बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण द्वार है - "योग" ।
योग करने का तात्पर्य शारीरिक रूप से मजबूत ही बनने का नहीं है बल्कि मानसिक और आत्मीय रूप से मजबूत होते हुए अपनी जीवनी  शक्ति को बढ़ाने का मुख्य हेतु भी है । प्रकृति ने बीते तमाम वर्षों में अपनी सामान्य त्रासदियों द्वारा यह संकेत किया है इंसान हवा, जमीन और जल किसी भी प्रकार की त्रासदी को झेलने के लिए तैयार हो जाए और इस की तैयारी हेतु सबसे बड़ा विकल्प है "योग" । पिछले तमाम वर्षों में योग का पुनः पनपना , घर-घर तक पहुंचना यह किसी महापुरुष की देन नहीं । योगी और महापुरुष तो एक माध्यम हैं । यह प्रकृति के द्वारा चयनित  व्यवस्था का स्वरूप है । क्योंकि यही एक विकल्प है जिसके द्वारा इंसान भीतर और बाहर से मजबूत बन सके और महा त्रासदी का सामना कर सके । भविष्यवक्ताओं के अनुसार महात्रासदी के बाद इंसानों का जीवन पृथ्वी पर 90℅ से 95% तक समाप्त हो जाएगा । यह 5% से 10% बचने वाले वही इंसान होंगे जो इस महाप्रलय से बच सकने के लिए योग्य होंगे और उन्हीं इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर पुनः नवजीवन का अवतरण होगा । ऐसे ही इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर सतयुग की पुनः वापसी होगी । क्या कभी हमने सोचा है हमारी आने वाली पीढ़ियां भी आने वाले सतयुग के इस सवेरे को अपनी आंखों से देखें । यदि नहीं सोचा है तो वास्तव में सत्य ही है कि आप न स्वयं के प्रति चिंतित हैं और ना ही आने वाली पीढ़ियों के प्रति ।  हमारा तात्पर्य सिर्फ यह नहीं है कि जो व्यक्ति रोजाना योग, प्राणायाम कर रहे हैं वे प्रलय में बच सकने के लिए  सक्षम हैं बल्कि हमारा तात्पर्य योग को पूर्णता से अपने जीवन में उतारने के लिए है। क्योंकि यही एक विकल्प है जो हमारे भीतर की कमजोर चेतना को ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए मजबूत बना सकता है ।  हम में से यकीनन तमाम लोग योग कर रहे हैं किंतु सत्यता यह भी है कि आसन और प्राणायाम के अतिरिक्त बाकि पूरा जीवन भोग ,काम ,लोभ और अहंकार में गुजर जा रहा है , जिसे हम बदलना नहीं चाह रहे हैं और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी  भोग,लोभ, काम और अहंकार के संस्कार की चादर ओढा रहे हैं और हमें मालूम भी नहीं की प्रकृति अपने चुनाव में ऐसे लोगों को विनाश की लीला में नष्ट होने के लिए चयनित करेगी । यदि हमारे भीतर वास्तव में योग अभ्यास और उससे प्राप्त शक्ति होगी तो निश्चित ही हमारे भीतर भविष्य में आने वाली इस परिस्थिति को समझ सकने की क्षमता होगी । हम तो सिर्फ यही कहेंगे कि वक्त बहुत कम हैं और हमारे दोनो हाथों में एक में भोग की छड़ी है, तो दूसरे में  लोभ की छड़ी और आंखों पर अहंकार का चश्मा है । हमको सिर्फ इन दोनों छड़ियों को और चश्मे को फेंक कर तैयार होना पड़ेगा ,क्योंकि मालूम नहीं महाविनाश की इस लीला में हमको सतयुग के द्वार तक प्रवेश करने के लिए कितने दिन भूखे भटकना पड़ेगा और कितने दिन अव्यवस्थित भटक कर गुजारना पड़ेगा ।  हम तो सिर्फ परम पूज्य गुरुदेव को याद करते हुए उनके इस शब्द को दोहरा रहे हैं -

सावधान हो जाओ 
सावधान हो जाओ नवयुग आता है। 
स्वागत थाल सजाओ नवयुग आता है।। 
होवे कितना ही भारी, पाप अँधेरा। 
भागेगा वह होते ही, पुण्य सबेरा॥ 
होना है दूर, अँधेरा मेरे भाई रे। 
आना है शीघ्र, सबेरा मेरे भाई रे॥ 
सुनो जरा युग दूत, प्रभाती गाता है॥ 
दुष्टता भ्रष्ट स्वार्थ ये, रह न सकेंगे। 
चोट यह महाकाल की, सह न सकेगे। 
होगा न इनका, गुज़ारा मेरे भाई रे। 
देखो तो दैवी, इशारा मेरेे भाई रे॥ 
जो भी हो विपरीत, सभी गल जाता है 
शौर्य सद्भाव बढ़ेगा, सबके मनों में। 
विश्व-बन्धुत्व पलेगा, जन-जीवन में॥ 
आयेगा स्वर्ग, जमीं पर मेरे भाई रे। 
बनना है देव, हमीं को मेरे भाई रे॥ 
दैवी साँचे में ये, सब ढल जाता है॥ 
पाण्डवों जैसा प्रभु से, नेह लगा लो। 
गिद्ध-ग्वालों जैसा ही, शौर्य जगा लो॥ 
जागेगा भाग्य, हमारा मेरे भाई रे। 
आँखों में कल का, नज़ारा मेरे भाई रे॥ 
साहस करने वाला, धन्य कहाता है॥ 

मुक्तक
नया युग आ रहा है, पात्रता विकसित करें अपनी। 
उसी अनुरूप जीवन विधि, चलो निर्मित करें अपनी॥ 
स्नेह, सद्भाव, समता और ममता को सँजोकर हम। 
नये युग को कि स्वागत अञ्जलि अर्पित करें अपनी॥ 

----------------------------------------------------------------------- Article  by - Manas Rajrishi

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