Tuesday, October 16, 2018

सिर्फ चक्र जागरण ही पर्याप्त नहीं गति भी महत्वपूर्ण


नमस्कार मित्रों .
जैसा कि सभी जानते हैं आज का परिवेश आधुनिक युग कहलाता है और यह युग  पिछले 500 वर्ष पहले के युग से बिल्कुल भिन्न हो चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग मनुष्य के जीवन का पूर्ण पर्याय बन  चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग की आवश्यकता आजकल गृहस्थों को ही नहीं बल्कि सन्यासियों और साधुओं को भी हो गई है । इस सुविधा, संग्रह ,भोग में लिप्त इंसान जब शारीरिक रूप से स्वयं को सक्षम नहीं महसूस करता तब वह स्वयं को सुविधा,संग्रह भोग के लिए सक्षम करने हेतु योगआसान और प्राणायाम  करता है । योगासनों और प्राणायाम का अभ्यास करते-करते उसे ज्ञान होता है कि इससे भी ऊपर की बात है - सात चक्रों का जाग्रत होना है । सुविधा, संग्रह, भोग को एक तरफ इंसान छोड़ना नहीं चाहता दूसरी तरफ सात चक्रों को जागृत करना चाहता है । इतिहास के पन्नों में मानव जाति के पतन के लिए कार्य करने वाले मोहम्मद गोरी, गजनी, हिटलर, लादेन जैसे अनेकों शक्ति संपन्न इंसानों का जिक्र आता है । वहीं दूसरी तरफ मानव जाति के उत्थान के लिए कार्य करने वाले कृष्ण ,सम्राट अशोक, संत कबीर, बुद्ध ,स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का जिक्र भी आता है । हम यह बिल्कुल नहीं कह सकते कि पतन के रास्ते पर कार्य करने वाले यह महामानवों के चक्र जागृत नहीं थे । इन सभी की सक्रियता और सक्षमता के अनुसार इनके सातों चक्र जागृत कहे जा सकते हैं किंतु चक्र जागरण ही मुख्य बात नहीं है । मुख्य बात है चक्रों की सकारात्मक गति और नकारात्मक गति । पतन के रास्तों पर कार्य करने वाले सभी महामानवों के चक्रों की गति नकारात्मक रूप से अधिक गति में गतिशील थी और उत्थान के मार्ग पर कार्य करने वाले महापुरुषों के चक्रों की गति ,तीव्र गति में सकारात्मक । इसीलिए उनके भीतर की प्रेरणा और कार्य भी सकारात्मकता और नकारात्मकता की दृष्टि से परिवर्तित हो गए । हमारा इस परिदृश्य में बात रखने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि हम यदि चक्रों के जागरण पर कार्य कर रहे हैं तो आवश्यक हैं कि उसके साथ सात चक्रों की गति को सकारात्मक मूवमेंट देने के लिए भी कार्य करें । अन्यथा स्वयं के सुविधा,संग्रह,भोग , गलत आदतों और बुराइयों के कारण चक्र जागृत होने के बावजूद भी नकारात्मक गति में गतिशील रहेगा जिसके कारण हम चक्र जागृत करने के बाद भी समाज के लिए कोई योगदान नहीं दे पाएंगे और स्वयं की स्वार्थनिहिता के कारण चक्रों को जागृत करने के बावजूद भी पूरा जीवन निरर्थक कार्यों बिता देंगे ।

उदाहरण के स्वरूप में हमने मूलाधार चक्र को लिया जिसकी मुख्य चार उर्जाएँ - धर्म, अर्थ, काम और  मोक्ष के संतुलन के लिए कार्य करती हैं । किसी व्यक्ति का मूलाधार चक्र जागृत है और जागृत होने के साथ अधिक सकारात्मक भी है तब वह धर्म,अर्थ ,काम ,मोक्ष के विषय अंतर्गत सकारात्मक रीति से कार्य करेगा अन्यथा जागृत मूलाधार चक्र की ऊर्जाओं को वह धर्म,अर्थ, काम में लिप्त होकर व्यर्थ गँवाएगा ।

चक्रों के जागरण के साथ उसकी स्कारात्मक गति किसी अभ्यास से नहीं प्राप्त होती । यह  भीतर के संयम संकल्प द्वारा आत्माशक्ति वृद्धि से ही प्राप्त हो सकती है इसलिए चक्रों के जागरण में के साथ पंचकोशीय  यात्रा की साधना भी अनिवार्य रूप से करना चाहिए । अन्यथा सात चक्र जागृत होने के बावजूद भी व्यक्ति के चेतना अन्नमय कोश तक ही अटकी रहेगी ।  जिससे ना तो स्वयं का उत्थान संभव है और ना ही समाज कल्याण । आजकल योग साधक जब समाज कल्याण करता है तब उसके समाज कल्याण में उसके भीतर दिखाई देने वाली  महत्वाकांक्षा उसके चक्रों के जाग्रत होने के साथ नकारात्मक गति का महत्वपूर्ण उदाहरण है । ऐसे में योग साधना बाजार की वस्तु और दिखावे की वस्तु बन कर रह जाती है ।
उचित है कि हम सात चक्रों को जागृत करें किंतु आवश्यक है उसके साथ चक्रों की गति को सकारात्मक भी करें जिसके लिए सही मार्गदर्शन की खोज करें , इस बात को ध्यान रखते हुए की चक्र जागरण कोई बाजार में बिकने वाली बाजार वस्तु नहीं है । _______________________लेख - मानस राजऋषि

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