Thursday, August 9, 2018

स्वयं को केंद्रस्थ करने का सिद्धान्त

यह सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है । व्यक्ति - जब वह स्वयं को केंद्रस्थ  करता है तब प्रकृति की हर एक वस्तु और जीव उसकी केंद्रस्थ शक्ति के अनुसार उसकी तरफ आकर्षित होने लगतें हैं । स्वयं को केंद्रस्थ करना एक बहुत बड़ी तैयारी है । जब तक व्यक्ति स्वयं को केन्द्रित नही करता तब तक वह किसी न किसी मान्यतावाद से उलझा रहता है । जिस मान्यता का व्यक्ति अनुसरण कर रहा है वह केन्द्रित है और अनुसरण करने वाला उसके चारों तरफ चक्कर काट रहा अकेंद्रित है । व्यक्ति सुख - समृद्धि और मृत्यु के बाद मुक्ति  चाहता है जिसके लिए उसकी धारणा बना दी जाती है वह किसी मान्यता का अनुसरण कर चक्कर काटे ।

गिने - चुने व्यक्ति मान्यताओं को मानतें -मानतें थक जटें हैं । मान्यताओं की विवशता से छूटकर  स्वतंत्र हो जातें हैं ।  स्वतंत्र होना कठिन हैं । मान्यताएँ रक्षा कवच की तरफ प्रतीत होतीं हैं । जब व्यक्ति मान्यताओं के अलग होता तब वह भ्रांतिदर्शन, मिथ्यावाद, अवतार पूजावाद से भी पृथक हो जाता है ।
यह अत्यंत मुश्किल है । पूरी तरह से स्वतंत्र होना अर्थात स्वयं का रक्षा कवच भी स्वयं तैयार करना । स्वयं स्वतंत्र होने के बाद मान्यतावादी लोग आपसे पृथक हो जातें हैं । मान्यतावादी लोग भेड़ों के झुंड की तरह होटें हैं । जब आप स्वतंत्र होकर अकेले पड़ जाते हो तब झुंड की एक भी भेड़ आपकी तरफ नही आएगी ।
स्वतंत्र होकर स्वयं के द्वारा ही अस्तित्व को समझने का आपको अवसर मिलता है । आप द्रष्टा बन जाते हो । सही अर्थों मे जब आपको अस्तित्व  समझने के लिए किसी ग्रन्थों अथवा  उपदेशक के स्थान पर स्वयं की द्रष्टा शक्ति ,अनुभव और प्रयोग का उपयोग करते हो तो समझना आसान हो जाता है । आप द्रष्टाबन  जितना समझोगे उससे आगे का समझने के लिए आपको पिछला समझा हुआ, व्यवहार मे लाना होगा ।
व्यवहार जैसे -जैसे  आपकी प्रकृति का अंग बनता जाएगा  आपकी भीतर की शक्ति जाग्रत होती जाएगी । केद्रस्थ होने का सिद्धान्त उसी तरह से कार्य  करता है जैसे विशालकाय ग्रह जिसके चारों तरफ उपग्रह घुमतें हैं । आपको ग्रह के समान स्वयं का अस्तित्व पैदा करने के लिए उसी प्रकार का गुरुत्वाकर्षण के समान बल भी उत्पन्न  करना होता है  ।
निरंतर अन्तः साधना आपकी आंतरिक शक्ति का विकास  करने लगती हैं ।  यह एक साधना है । फलप्रपति की चाह के रहित साधना । फल प्राप्ति की चाह हेतु प्रयत्न भी मान्यतावाद है । स्वतन्त्रता के विरुद्ध है । आपको तो वहीं से व्यवहारिक  होना है जो अपने द्रष्टा बन समझा है ।
दर्शन शास्त्र की पुस्तकों को पढ़ने , समझने और व्यवहार में लाने वाला व्यक्ति दर्शन शास्त्र का ज्ञाता हो सकता है किन्तु दार्शनिक नहीं । स्वयं द्रष्टा बन जाना , अपने अनुभव के आधार पर व्यवहार में लाना और भीतर के विकसित होते आत्मबल को अनुभव करना ही सही अर्थों में दार्शनिक बन जाना है ।


जब स्वयं का अस्तित्व द्रष्टा बन , अस्तित्व को समझने की शक्ति विकसित कर लेता है और समृद्ध आत्मबल चारों तरफ के व्याप्त अनेकों वस्तु और जीवों  को आपकी तरफ आकर्षित करने लगता है तब आप उस  शक्तिशाली  ग्रह की तरह बन जातें  हैं जिसके चारों तरफ उपग्रह चक्कर काट रहें हों ।
जब तक आप स्वयं को केंद्रस्थ नही करते तबतक ब्रह्मांड के चारों तरफ का अस्तित्व आपसे अलग-अलग  दूरी पर है । जब आप स्वयं को केंद्रस्थ करते हो तब ब्रह्मांड चारों तरफ आपसे बराबर दूरी पर बराबर हो जाता है । यीशु,कबीर,स्वामी विवेकानंद आदि महापुरुषों ने भी स्वयं को पूर्ण केंद्रस्थ किया जिसके कारण ही वे समाज को मान्यतावाद से पृथक कर केंद्रस्थ होने की दिशा देने के लिए तत्पर रहे ।
जब  निरंतर केद्रस्थ हो शक्तिशाली बनते हो ,प्रकृति की अनेक वस्तुएँ उपग्रह की तरह आपके चारों तरफ चक्कर काटने हेतु तैयार हैं तब भेड़ों का झुंड भी कहाँ शांत रहने वाला है ।
____________________________________________________लेख-मानस राजऋषी

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