Thursday, August 23, 2018

विचारों का 7 चक्रों पर प्रभाव

विचारों का 7 चक्रों पर प्रभाव - मनुष्य में  यदि सबसे प्रभावी कोई तंत्र है  तो वह है विचार तंत्र। अनेक लोगों द्वारा लिए गए कई अनुभव से यही बात सामने आती है की अधिकांश लोग सतत विचारों में चलते रहतें हैं।  दिनचर्या के क्रियाकर्मों के साथ विचार भी चलते रहतें हैं।  ज्यादातर विचार क्रियाकर्मों से भिन्न होते हैं अर्थात वर्तमान में किए जाने वाले कर्म और विचारों के विषय में भिन्नता हो जाती है।  इस अनुसार हम विचारों को  3 श्रेणी में बांटते हैं। 
1. कर्मसापेक्ष उत्तम श्रेणी  - इसे कर्मसापेक्ष विचार  भी कहेंगे  . यह सबसे उत्तम प्रकृति का विचार है।  यह विचार वर्तमान कर्म के साथ चलता है, अर्थात किए जा रहे कर्म के समय कर्म पर ही सारा विचार एकाग्रचित्त हो जाता है। 
2.कर्मनिर्पेक्ष  मध्यम श्रेणी - इस प्रकार के विचार की प्रकृति कर्म सापेक्ष नहीं होती किन्तु सकारात्मक होती है ।  अर्थात कर्म के समय विचार अन्यत्र है किन्तु सकारात्मक है। 
3.कर्मनिर्पेक्ष  निम्न श्रेणी - इस प्रकार का भी विचार कर्म के सापेक्ष नहीं होता किन्तु यह नकारात्मक होता है।  अर्थात कर्म के समय विचार अन्यत्र है किन्तु खल,चिंतित अथवा अवसाद की स्थिति में है। यही विचार चक्रों के असंतुलन का मुख्य कारक है।  

कैसे होते हैं 7 चक्र प्रभावित ?-   विभिन्न प्रकार के भाव विभिन्न  चक्रों को प्रभावित करते हैं। अलग -अलग  विचारों के अनुरूप भावों का अलग -अलग चक्रों से सम्बन्ध होता है।सकारात्मक विचार चक्रों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं और नकारात्मक विचार नकारात्मक प्रभाव।  किसी एक विषय पर विचार की लम्बे समय तक निरंतरता सकारात्मकता और नकारात्मकता के अनुसार चक्र को सक्रिय और निष्क्रिय भीं करते हैं, जिसे हम निम्नलिखित रूप से समझेंगे-  यदि कोई व्यक्ति धैर्य और स्थिर न रहने के कारण निरंतर दुखी या अवसाद में है तो निश्चित ही  मूलाधार चक्र  असंतुलित हो जायेगा, स्वास्थ्य के बारे में चिंतन भी मूलाधार को प्रभावित करेगा। किसी के भीतर धन संचय न हो पाने के कारण  चिंता अथवा अवसदादात्मक विचार स्वाधिष्ठान को असंतुलित करेंगे। सही निर्णय न ले पाने के कारण चिंता मणिपुर को बाधित करेंगे।  संबंधों अथवा प्रेम प्रसंग में सफलता की चिंता अनाहत को असंतुलित करेंगे।  भीतर की घुटन एवं समृद्धि रुक जाने पर विशुद्धि चक्र का संतुलन बिगड़ेगा।  बहरी अथवा भीतरी नियंत्रण न स्थापित कर पाना अथवा नियंत्रित न कर पाने के कारण चिंता आज्ञा को दुष्प्रभावित करेगी।  
                       उदाहरण के तौर पर 1 दिनपहले एक व्यक्ति का अनुभव लिया।  व्यक्तिकुछ वर्ष पहले  थायरॉइड की समस्या से पीड़ित हो गया जो अभी संतुलित की दिशा में था ।  जन्म समय के चक्र स्टेटस को निकालने पर उसका विशुद्धि संतुलित था किन्तु वर्तमान में असंतुलित।  उससे मैंने प्रश्न किया की कुछ काल  पहले क्या आपको लम्बे समय तक किसी असफलता के कारन घुटन अथवा समृद्धि रुक जाने के कारण अवसाद का शिकार होना पड़ा।  उसने स्वीकार किया कि लम्बे समय तक घुटन एवं असमृद्धि के कारण अवसाद रहा।  ये दोनों विषय विशुद्धि चक्र से सम्बंधित थे,सम्बंधित नकारात्मक विचारों ने विशुद्धि चक्र पर सीधा प्रभाव डाला।  उसने  बताया कि उसे,कुछ दिन  ध्यान करने के बाद वैचारिक परिवर्तन हुआ।  समृद्धि के प्रति वैचारिक सोच परिवर्तित हो गयी और घुटन भी समाप्त हो गयी उसके बाद से थायरॉइड में भी आराम मिलने लगा। 

आप भी कर सकतें हैं विचारों से चक्रों को सन्तुलित और स्वासमाधान - यदि आपकी समझ में यह विचारों का विज्ञान आ जाये तो जीवन के प्रत्येक विषय पर विचार को सकारात्मक करिये। क्योकि प्रत्येक विचार विभिन्न चक्रों से सम्बंधित है।  यदि विचार सकारात्मक नहीं हो पा रहे हैं तब ध्यान योगव्यायाम, प्राणायाम और ध्यान को नियमित अपनाइये।  योग से ज्यादा मददगार कुछ नहीं ,आपके लिए।  अभी हम पहले स्तर में विचार को मध्यम श्रेणी में ही ले जाने की बात करेंगे  अर्थात  कर्म के समय अन्यत्र विचार किन्तु सकारात्मक दिशा की तरफ।  आपका प्रयास और मध्यम श्रेणी के स्तर पर पहुंच जाने पर आप निरंतर रहिए अपने अभ्यास में विचार स्वतः धीरे धीरे उत्तम श्रेणी तक पहुँचने लगेंगे अर्थात कर्म से सापेक्ष। 
ध्यान योग्य बातें - चक्रों को संतुलित -असंतुलित करने में सिर्फ नकारात्मक विचार ही नहीं जिम्मेदार होते हैं बल्कि कर्म भी भूमिका  निभाते  हैं।  यदि आपने   किसी को पीड़ा पहुँचाई है और इस अपराध से आप प्रसन्न भी है तो विषय से सम्बंधित चक्र समृद्ध तो होगा किन्तु चक्र की प्रकृति  नकारात्मक हो जाएगी जो बादमे आपको भी पीड़ित करेंगे किन्तु यदि आप किसी को पीड़ा देने के बाद लज्जित हैं तो लज्जित होने के प्रति पनपने वाला अवसाद विषय से सम्बंधित चक्र को असंतुलित करेगा।  परपीड़ा सम्बन्धी कर्मों के कारण यदि चक्र असंतुलित हुए तो उसका उपचार ध्यान के स्थान पर सर्वप्रथम  कर्मों से ही किया जा सकेगा।  जिसकी मुख्य विधि पश्चाताप अथवा सामने से प्रकट रूप में क्षमा - याचना है।  स्वयं के अपराध की स्पष्ट प्रकट रूप से क्षमा याचना की संतुष्टि आपके भीतर के विचारों को परिवर्तित करेगी जो चक्रों के संतुलन होने में सहायक होगी और यह संतुलन आपको भीतर एवं बाहर से समृद्ध करेगा।  _________लेख- मानस राजऋषि 

Sunday, August 12, 2018

ऊर्जावाद का सिद्धांत


ऊर्जावाद का सिद्धांत
ब्रह्माण्ड  मे व्याप्त पदार्थों में सबसे सूक्ष्म और अदृश्य जो पदार्थ है, वह है ऊर्जा । अध्यात्म जगत को प्रभावित करने वाली ऊर्जाएँ बड़ी विचित्र और भिन्न -भिन्न गुणों वाली होती हैं । ऐसी ऊर्जाए जिन्हे आज तक मेडिकल साइंस भी नही व्यक्त कर पाया वास्तव मे अव्यक्त हैं ।
अपने यहाँ ,आपने सुना देखा होगा । विशेष गुणों की तारीफ करने पर नजर का लग जाना । कुछ लोग इसे बकवास मान सकतें हैं किन्तु पूरी तरह से मै नही । उदाहरण के तौर पर-  मै एक दिन योग की क्लास ले रहा था । मेरा शरीर का लचीलापन असमान्य कहा जा सकता था । उस दिन मेरी क्लास में एक योग की प्रोफेसर । प्रोफेसर होने के बावजूद उनका शरीर भारी था । मेरा लचिलापन उनके भीतर ईर्ष्या उत्पन्न करने के लिए काफी था । उन्होने  ईर्ष्या को  तारीफ के रूप में व्यक्त कर दिया और मैंने उसे मद भाव से युक्त होकर स्वीकार लिया । बस अगले दिन से कमर दर्द शुरू हो गया वह 1 माह तक रहा , फिर उसके बाद एक के बाद ऐसी घटनाएँ ऐसी बनती गईं की मेरा नियमित व्यायाम मुझे बंद रखना पड़ा , जिसका परिणाम यह रहा की मेरा लचिलापन जाता रहा । मुझे इसका आभास हो रहा था । मैंने भीतर काम करके उस नकारात्मक ऊर्जा को प्रयास के साथ निकाल दिया दूसरे ही दिन से सुधार होने लगा । अभी बहुत ही सकारात्मक स्थिति पुनः प्राप्त हों गयी ।

उपरोक्त घटना नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव का एक उदाहरण हैं ।इसी प्रकार  आपने भी कभी न कभी ऊर्जाओं के प्रभाव को अवश्य अनुभव किया होगा । किसी अच्छे व्यक्ति का हाथ सर पर पड़ जाना समृद्धि को बढ़ाने की दिशा में कार्य करने लगता है ।
ऊर्जाओं को पढ़ कर समझना आसान हो सकता है , किन्तु जब तक भीतर की साधना न की जाए इन ऊर्जाओं को महसूस करना असंभव है । स्वयं के जितने विषय उतनी ऊर्जाएँ । प्राण ऊर्जा और शरीर को जीवंत रखने वाली जीवनी ऊर्जा इन सभी ऊर्जाओं मे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है । विभिन्न विषयों से संबन्धित ऊर्जाओं के आवेशात्मक  रूप से दो भेद हैं ,-एक सकारात्मक ऊर्जा दूसरी नकारात्मक ऊर्जा । किसी विषय से संबन्धित ऊर्जा किसी व्यक्ति में एक ही आवेश की उपस्थित रह सकती है । सकारात्मक अथवा नकारात्मक ।
 स्वयं के मुख्य अन्य महत्वपूर्ण विषयों से संबन्धित विभिन्न सकारात्मक  ऊर्जाएँ – स्थिर मनऊर्जा, प्रेमऊर्जा,कर्मऊर्जा, संबंधऊर्जा, सुखकारक ऊर्जा, ज्ञानऊर्जा, सौभाग्यऊर्जा, लाभऊर्जा ।
ठीक इसी प्रकार विषयों की विभिन्न नकारात्मक ऊर्जाएँ भी इस प्रकार हैं – अस्थिर मन ऊर्जा, द्वंद ऊर्जा, अकर्मी ऊर्जा, शत्रु कारक ऊर्जा, दुख कारक ऊर्जा, अज्ञान ऊर्जा, दुर्भाग्य ऊर्जा, व्यय ऊर्जा ।
दुखी इंसान के दुख का प्रारब्ध भीतर प्रवेश करने वाली मात्र एक नकारात्मक ऊर्जा ही होती है जो बाद मे अन्य सकारात्मक ऊर्जाओं को बाहर निकाल नकारात्मक ऊर्जाओं को आमंत्रित करने का प्रयास करती है । ऊर्जाओं के प्रवेश के निम्नलिखित माध्यम हो सकतें हैं ।
स्थान विशेष – स्थान विशेष  सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जाओं से प्रभावित होतीं हैं । जहाँ भ्रमण करने से ऊर्जा पहले तो आभामंडल के संपर्क में आकार साथ हो लेती है फिर बाद में उसका प्रवेश भीतर हो जाता है ।
क्रिया विशेष – ऊर्जाओं को आमंत्रित करने हेतु क्रियाओं और साधनाओं द्वारा भी ऊर्जा को प्रकट कर उसे भीतर सुरक्षित किया जाता है ।
परक्रिया विशेष – किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ऊर्जाओं को आमंत्रित कर अन्य व्यक्ति को प्रभावित करना ।
विचार विशेष – व्यक्ति का जैसा विचार स्तर होता है वैसा ही उसका व्यवहार होता है एवं वैसी ही ऊर्जा उसके भीतर संरक्षित होने लगती है ।
संस्कारजन्य ऊर्जा – कुछ लोगों में परिवारजन्य अथवा पूर्वजन्मजन्य संस्कार के कारण प्राप्त ऊर्जाओं का संरक्षण होता है ।
 दुर्भाव जन्य विशेष – उपरोक्त उदाहरण के अनुसार नजर लगना । मूलतः सभी उद्वेग नजर के द्वारा नहीं उत्पन्न होते किन्तु इसका प्रभाव परव्यक्ति द्वारा ईर्ष्या के भाव स्वरूप अभिव्यक्ति और दंभ रूप में उसकी स्वयं स्वीकरोक्ति द्वारा होता है ।
घटना विशेष – जीवन में सुख ,दुख,सफलता,असफलता आदि घटनाएँ भी भीतर के भाव को बदलकर सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जाओं के निर्माण का कार्य करतीं हैं ।
उम्र विशेष – उम्र के अनुसार भी ऊर्जाओं के निर्माण और क्षय का समय आता है वे उसी भांति प्रभाव उत्पन्न करतीं हैं । 

अव्यक्त ऊर्जाओं का खेल
कुछ मूढ़ लोग इन उर्जाओं को व्यक्त रूप मे जानने के लिए प्रयोग करतें हैं । ऊर्जाए अवक्त हैं और इन्हें अवक्त रूप में ही समझना पड़ेगा । उर्जाओं को समझने और उनके द्वारा स्थिति परिवर्तित करने के अनेकों सिद्धांत हैं । जिनमें से कुछ निम्न हैं –
चित्त वृत्ति निरोध – भीतर की ऊर्जाओं को आप तब तक नहीं समझ सकते जब तक मन भटकाव की स्थिति में है । ऊर्जाओं को पहले समझना होगा उसके लिए मन को भटकाव से मुक्त कर एक जगह टिकने का प्रयास करना होगा ।
परमार्थ – परमार्थ अर्थात दूसरों पर उपकार करना । हर जीव के भीतर अलग अलग तरह की ऊर्जाएँ होती हैं । परमार्थ के कार्य को निरंतर करते रहने से परपीड़ा का आभास होने लगता है । उनके द्वारा निकली भीतरी शुभकामनाएँ स्वयं की भीतरी ऊर्जाओं को सकारात्मक दिशा की तरफ परिवर्तित करने लगतीं हैं । आपको तब भीतर से कुछ बदलने की हलचल प्रतीत होती , बस समझिए भीतर ऊर्जाओं का खेल चल रहा है ।
योग साधना – योग साधना और प्राणायाम के द्वारा भीतर की ऊर्जाओं का सकारात्मक परिवर्तन होगा । व्यावहारिकता आश्चर्यजनक रूप से बदलने लगेगी । यदि उस समय भीतर इस परिवर्तन को समझने का प्रयास किया जाए तो ऊर्जाओं का भीतरी खेल महसूस होने लगेगा ।
क्रियाएँ – कुछ विधियाँ हैं ऊर्जाओं को प्राप्त कर सुरक्षित करने और जरूरत पड़ने पर स्वयं के लिए अथवा किसी अन्य जीव की पीड़ा पर उसे प्रदान करने की । ऊर्जाओं की विधियों का उपयोग विशिष्ट साधना के स्तर पर प्राप्त हो सकता है ।

ऊर्जाएँ जीवित के जीवन को सुख में रखने अथवा दुख को भोगने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभतीं हैं । जिस प्रकार हम सकारात्मक ऊर्जाओं को संरक्षित करने और सही समय पर उसके उपयोग की बात करते हैं उसी प्रकार नकारात्मक ऊर्जाएँ भी संरक्षित कर लोग किसी को दुखी करने के लिए प्रयोग में लातें हैं । किन्तु नकारात्मक ऊर्जाओं को संरक्षित करना स्वयं की भी हानि करना है।  यदि किसिने क्रोध,दुर्भाववश किसीका कोई नुकसान करने का प्रयास किया  जो उसयोग्य नहीं है तो निश्चित ही वह ऊर्जा व्यक्ति का नुकसान करने के लिए पूरा कार्य न करके अथवा कुछ अंश में बचकर नुकसान करने वाले का भी नुकसान करेगी एवं नुकसान खाने वाले की पीड़ा अवश्य नुकसान करने वाले के भीतर नकारात्मक रूप में प्रकट होकर नुकसान का ही कार्य करेगी ।
हमेशा भला विचार करें – भीतर सकारात्मक ऊर्जाओं की वृद्धि स्वयं की समृद्धि के लिए पर्याप्त कार्य करती है । भीतर सकारात्मक ऊर्जाओं की वृद्धि का सबसे मुख विकल्प यही है की हमारा विचार एवं कर्म पुरुषार्थी एवं परमार्थी रहे । ____________________________आलेख मानस राजऋषि  


Thursday, August 9, 2018

स्वयं को केंद्रस्थ करने का सिद्धान्त

यह सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है । व्यक्ति - जब वह स्वयं को केंद्रस्थ  करता है तब प्रकृति की हर एक वस्तु और जीव उसकी केंद्रस्थ शक्ति के अनुसार उसकी तरफ आकर्षित होने लगतें हैं । स्वयं को केंद्रस्थ करना एक बहुत बड़ी तैयारी है । जब तक व्यक्ति स्वयं को केन्द्रित नही करता तब तक वह किसी न किसी मान्यतावाद से उलझा रहता है । जिस मान्यता का व्यक्ति अनुसरण कर रहा है वह केन्द्रित है और अनुसरण करने वाला उसके चारों तरफ चक्कर काट रहा अकेंद्रित है । व्यक्ति सुख - समृद्धि और मृत्यु के बाद मुक्ति  चाहता है जिसके लिए उसकी धारणा बना दी जाती है वह किसी मान्यता का अनुसरण कर चक्कर काटे ।

गिने - चुने व्यक्ति मान्यताओं को मानतें -मानतें थक जटें हैं । मान्यताओं की विवशता से छूटकर  स्वतंत्र हो जातें हैं ।  स्वतंत्र होना कठिन हैं । मान्यताएँ रक्षा कवच की तरफ प्रतीत होतीं हैं । जब व्यक्ति मान्यताओं के अलग होता तब वह भ्रांतिदर्शन, मिथ्यावाद, अवतार पूजावाद से भी पृथक हो जाता है ।
यह अत्यंत मुश्किल है । पूरी तरह से स्वतंत्र होना अर्थात स्वयं का रक्षा कवच भी स्वयं तैयार करना । स्वयं स्वतंत्र होने के बाद मान्यतावादी लोग आपसे पृथक हो जातें हैं । मान्यतावादी लोग भेड़ों के झुंड की तरह होटें हैं । जब आप स्वतंत्र होकर अकेले पड़ जाते हो तब झुंड की एक भी भेड़ आपकी तरफ नही आएगी ।
स्वतंत्र होकर स्वयं के द्वारा ही अस्तित्व को समझने का आपको अवसर मिलता है । आप द्रष्टा बन जाते हो । सही अर्थों मे जब आपको अस्तित्व  समझने के लिए किसी ग्रन्थों अथवा  उपदेशक के स्थान पर स्वयं की द्रष्टा शक्ति ,अनुभव और प्रयोग का उपयोग करते हो तो समझना आसान हो जाता है । आप द्रष्टाबन  जितना समझोगे उससे आगे का समझने के लिए आपको पिछला समझा हुआ, व्यवहार मे लाना होगा ।
व्यवहार जैसे -जैसे  आपकी प्रकृति का अंग बनता जाएगा  आपकी भीतर की शक्ति जाग्रत होती जाएगी । केद्रस्थ होने का सिद्धान्त उसी तरह से कार्य  करता है जैसे विशालकाय ग्रह जिसके चारों तरफ उपग्रह घुमतें हैं । आपको ग्रह के समान स्वयं का अस्तित्व पैदा करने के लिए उसी प्रकार का गुरुत्वाकर्षण के समान बल भी उत्पन्न  करना होता है  ।
निरंतर अन्तः साधना आपकी आंतरिक शक्ति का विकास  करने लगती हैं ।  यह एक साधना है । फलप्रपति की चाह के रहित साधना । फल प्राप्ति की चाह हेतु प्रयत्न भी मान्यतावाद है । स्वतन्त्रता के विरुद्ध है । आपको तो वहीं से व्यवहारिक  होना है जो अपने द्रष्टा बन समझा है ।
दर्शन शास्त्र की पुस्तकों को पढ़ने , समझने और व्यवहार में लाने वाला व्यक्ति दर्शन शास्त्र का ज्ञाता हो सकता है किन्तु दार्शनिक नहीं । स्वयं द्रष्टा बन जाना , अपने अनुभव के आधार पर व्यवहार में लाना और भीतर के विकसित होते आत्मबल को अनुभव करना ही सही अर्थों में दार्शनिक बन जाना है ।


जब स्वयं का अस्तित्व द्रष्टा बन , अस्तित्व को समझने की शक्ति विकसित कर लेता है और समृद्ध आत्मबल चारों तरफ के व्याप्त अनेकों वस्तु और जीवों  को आपकी तरफ आकर्षित करने लगता है तब आप उस  शक्तिशाली  ग्रह की तरह बन जातें  हैं जिसके चारों तरफ उपग्रह चक्कर काट रहें हों ।
जब तक आप स्वयं को केंद्रस्थ नही करते तबतक ब्रह्मांड के चारों तरफ का अस्तित्व आपसे अलग-अलग  दूरी पर है । जब आप स्वयं को केंद्रस्थ करते हो तब ब्रह्मांड चारों तरफ आपसे बराबर दूरी पर बराबर हो जाता है । यीशु,कबीर,स्वामी विवेकानंद आदि महापुरुषों ने भी स्वयं को पूर्ण केंद्रस्थ किया जिसके कारण ही वे समाज को मान्यतावाद से पृथक कर केंद्रस्थ होने की दिशा देने के लिए तत्पर रहे ।
जब  निरंतर केद्रस्थ हो शक्तिशाली बनते हो ,प्रकृति की अनेक वस्तुएँ उपग्रह की तरह आपके चारों तरफ चक्कर काटने हेतु तैयार हैं तब भेड़ों का झुंड भी कहाँ शांत रहने वाला है ।
____________________________________________________लेख-मानस राजऋषी

Monday, August 6, 2018

If You want God to be with you, then

मनुष्य स्वयं एक अनसुलझी पहेली है।  ये मेरा संस्कार था मेरी माँ को उस समय पूजा पाठ में इतना यकींन था किन्तु उसने हमें जो कहानियां सुनाई वह एक ऐसे मार्ग की थी जिस मार्ग में ईश्वर आपके साथ स्वयं यात्रा करते रहतें हैं।  वह मार्ग था सत्य के साथ चलने का , और सत्य के प्रति न डरने का।  मैं जब- जब भक्त बना तब तक स्वयं को खो दिया मै  स्वयं को खोना नहीं चाहता था।  इसलिए एक दिन पूजा-पाठ जैसी आस्थाओं से स्वयं को मुक्त कर लिया।  मैंने हर निर्जीव-सजीव वास्तु में एक ऐसे परमात्मा का वास मानने लगा जिसे मैं  अव्यक्त मानता  था। मेरी मान्यता लोगों  की  समझ में नास्तिकता थी।  मेरी मान्यता मुझे भीतर को जाग्रत करने में मुझे मदद  करती गयी।  तब से आज तब जीवन में अनेको रोड़े आये , विरोधी भी आये किन्तु वो मुझे नीचे नहीं गिरा सके उसकी जगह  मै  और आगे बढ़ता गया।  फिर भी मुझे दुःख है की - लोग किसी न किसी संप्रदायय में जन्म लेते हैं।  सम्प्रदायों में अलग अलग पंथ और उनकी अलग अलग ईश्वरीय धारणाएं।  मैने लगभग सभी सम्प्रदायों के प्रत्येक पंथ की ईश्वरीय मान्यताओं को देखा देख।  किसी भी पंथ में ऐसी मान्यता न मिली जिसमें असत्य ,बेईमानी ,अहिंसा की कोई प्रेरणा हो।

  अभी पिछले वर्ष  जैन के एक विशेष समुदाय से मेरा सामना हुआ।  उस समुदाय की ईश्वरीय मान्यता मेरे स्वाभाव के अनुकूल लगी।  सिर्फ सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलो , मूर्तिवाद और दर्शन की कोई भ्रान्ति नहीं।  उस समुदाय ने तो पूरा विश्वविद्यालय ही बना रखा है।  विश्व  में शांति स्थापित करने का बेडा ही उठा लिया।  मैं उनके आचार्यों की शिक्षाओं से इतना प्रभावित हुआ की वहां का योग विद्यार्थी ही बन गया।  उस समय अहमदाबाद में मेरी प्रसिद्धि एक कुशल विचारक, योगगुरु और प्राकृतिक चिकित्सक के रूप में विद्यमान हो चुकी था।  विश्वविद्यालय के दलालों ने पैसे  एठने के  लिए रोज नए नए कोर्स,फॉर्म और उपक्रम ला रहे थे और अहमदाबाद  के मुख्य दलाल को रोज मेरे थेरपी सेंटर में मुफ्त की मसाज चाहिए थी। जिसे मै  परेशान हो हो रहा था। एक दिन बसंत  नाम के उस दलाल ने थेरपी सेंटर में मुझसे लड़की द्वारा मसाज की मांग कर दी।  मैंने पूर्णतः उनको मना कर दिया और आगे उन्हें न आने का निवेदन किया।   मैंने इसका विरोध किया तो उसने उसने समुदाय के एक पुरुष और दो शिक्षिकाओं को अपने साथ मिला लिया और नए मुद्दे को कारण बना कर मुझे प्रैक्टिकल परीक्षा से वंचित कर दिया, और अन्य विद्यार्थियों में भी मुझे गलत प्रचारित कर क्षवि धूमल करने का प्रयास किया । उन लोगों ने मेरी क्षवि को पूरी तरह सर धूमिल करने का प्रयास किया किन्तु मैं नहीं घबराया।  मुझे विश्वास  था की मेरे भीतर का परमात्मा मुझे कभी निचे नहीं गिरा सकता।  मुझे प्रैक्टिकल से वंचित किए ३ दिन भी नहीं हुए थे की गुजरात सरकार की तरफ से मुझे योग दिवस पर विश्व रिकॉर्ड बनाने का प्रपोजल आया।  ६ दिन बाकी थे २१ जून को।  मैंने टीम बनाया और योग दिवस की तैयारी में लग गया।  मुझे उस समय हर क्षण लगा की जैसे वह ईश्वर जिसकों उस जैन समुदाय के लोग  मानते हैं वह भी उनकी असत्य प्रवृत्ति के कारण रूठकर , उन्हें छोड़ कर मेरे साथ हो लिया।

     मुझे विश्वयोग दिवस की तयारी के हर एक क्षण महसूस हुआ की  परमात्मा सदैव मेरे नजदीक है और मुझे शक्ति दे रहा है।  परमात्मा ने मुझे जीत दिला दी।  मेरी क्षवि उन  दलालों द्वारा नीची तो नहीं की जा सकी किन्तु  और ऊपर अवश्य बढ़ गयी।
मेरी इस कहानी का प्रयोजन किसी के अपराध को सामने लाना नहीं बल्कि यह है की जब आप वास्तव में ईश्वरीय नजदीकी चाहते हो तो।  आपको झूठ बेईमानी से मुक्त होना पड़ेगा।  सिर्फ स्वयं के समुदाय की सेवा की भावना से निकलकर हर एक जीव की सेवा पर आस्था को कायम करना होगा।  ईश्वर अवयक्त है।  आपको साक्षात् न दिखेगा।  किन्तु मिलेगा अवश्य।  जो आपको भी उस आस्था की तरह कायम रखेगा।  

Sunday, August 5, 2018

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Articles by Manas Rajrishi

सब खेल है , भीतर की सारी ऊर्जाओं का  - 

 शरीर प्राणवान है तबतक भीतर अनंत ऊर्जाओं का प्रवाह है।  इन ऊर्जाओं में कुछ ऊर्जाएं सकारात्मक प्रभाव देतीं हैं कुछ नकारात्मक और कुछ न्यूट्रल। हमारे भीतर के संस्कार , संगति ,विचार और व्यव्हार के गुणों के अनुरूप ये ऊर्जाएं पोषित होती रहतीं हैं।  एवं फलने-फूलने बढ़ने कार्य करतीं हैं। जीवन के जितने विषय उतनी ऊर्जाएं हैं।   हर विषय की अलग ऊर्जा होती है।  जैसे स्वास्थ्य को समृद्ध करने वाली ऊर्जा अलग है तो सुख को बढ़ाने बवाली ऊर्जा अलग।  उसी प्रकार जिस भाग्य,दुर्भाग्य को हम धर्मों में मानते हैं वास्तव में वह भी है , ऊर्जा के रूप में।  धन संचय की भी ऊर्जा है तो कर्म की भी ऊर्जा है।  हमारे भीतर के स्वरूप में भी सतत एक युद्ध चल रहा है-  विषयों  के प्रति नकारात्मक ऊर्जाओं का और सकारात्मक ऊर्जाएं का। यदि  भीतर की नकारात्मक ऊर्जाएं  सकरात्मक ऊर्जाओं ज्यादा ताकतवर होंगी तो वह आपको दुखी ही करने वाली हैं।  सतत सुख का एक ही विकल्प है।  ऊर्जाओं के खेल को सीखना , समझना और भीतर के इस युद्ध में विजयी होना।

नाड़ियाँ और व्यक्तित्व   -
वैसे तो आयुर्वेद में 72 हजार नाड़ियों का वर्णन है किन्तु 14 नाड़ियाँ मुखी रूप से मनुष्य की ऊर्जओं को संचालित करतीं हैं ।

"सुषुम्नेडा पिंगला च गांधारी हस्तिजिह्विका.
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी.
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी.
एतासु त्रिस्रो मुख्याः स्युः पिंगलेडासुषुम्निकाः. --शिवसंहिता 2/14-15
इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिह्वा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है.


इड़ा – यह  शरीर के बायीं तरफ होती है जिसे चन्द्र नाड़ी से भी संबोधित करतें हैं । चंद्र की ऊर्जा स्वभावतः चंचल  स्वभाव के मन को पोषित करती है । भीतर की कल्पनाएँ ,चाहनाएँ आदि जब प्रबल रहें तो समझिए वे सिर्फ चंद्र ऊर्जाओं के प्रभाव से ग्रसित हैं । इस विशेष ऊर्जा की खपत विशेष रूप से इंद्रियों पर होती है ।

पिंगला – यह शरीर के दायीं तरफ होती है जिए सूर्य नाड़ी से भी संबोधित करतें हैं । सूर्य ऊर्जा स्वभावतः भाव शक्ति और शरीर की शक्ति को पोषित करती है। भीतर की भावनाएँ और स्वस्थ्य जब प्रबल रहे तो समझिए सूर्य ऊर्जा से ज्यादा प्रभावित है । इस विशेष ऊर्जा की खफ़त विशेषकर शरीर के मुख्य ऑर्गन्स और 7 चक्रों के होती है ।

सुसूम्णा – सूर्य और चन्द्र नाड़ियाँ आपस में जहां मिलतीं हैं उस स्थान से प्रवाहित होने वाली नाड़ी तो इन सूर्य और चन्द्र नाड़ी को कवच की भांति ढक कर चलती है , सुसूम्णा नाड़ी कहलाती है । यह प्रत्येक समय  सक्रिय नहीं रहती । जब दायीं और बायीं नासिका से चलने वाला स्वर बराबर होता है तब यह सक्रिय हो जाती है । यह जितने समय तक सक्रिय रहती है उतने समय प्राण ऊर्जा समृद्ध करती है । अवसाद से ग्रसित लोगों मे यह कम समय और कम अंतराल तक सक्रिय होती है । अवसाद की अंतिम अवस्था अर्थात जब किसी के भीतर अत्महत्या जैसा पूर्ण भाव आ जाए तब यह बिलकुल निष्क्रिय अवस्था में  जाती है । सकारात्मक विचार, प्राणायाम और ध्यान से इसे सक्रिय रखा जा सकता है ।है.

Saturday, August 4, 2018

Astroyog introduction


ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ 


*विशुद्ध योगसूक्ष्म साधना विधि अपनाएं और 💯 प्रतिशत सफलता पाएँ*
*A͆s͆t͆r͆o͆ Y͆o͆g͆a͆*

*चक्रों की जांच के 2 आधार*
1⃣जन्म कालिक स्थिति, 2⃣वर्तमान स्थिति

*1⃣ जन्मकालिक स्थिति👇🏼*
जाने अपने 7 चक्रों की जन्मकालिक अवस्था और बल को
*चक्र की अवस्थाएं -* यह 3 प्रकार की होती हैं - 1. सुप्त , जाग्रत, और सुसुप्त


चक्रों के बल -* यह चार प्रकार के हैं - 
1⃣बाल, 2⃣किशोर, 3⃣युवा, 4⃣प्रौढ़
*चक्रों का ऊर्जा गुण -* यह तीन प्रकार के है - 1⃣नकारात्मक, 2⃣ सम, 3⃣सकारात्मक
*कैसे ज्ञात करें -* इसके लिए जन्म तिथि और समय की सही जानकारी होना आवश्यक है । जन्म तिथि और समय के सही जानकारी के द्वारा वैदिक गणित की कुछ विधि द्वारा चक्रों की शक्ति और अवस्था का ज्ञान किया जाता है ।
*क्यों ज्ञात करें -* जीवन में सफलता को प्राप्त करने के लिए अनेक बाधाओं से गुजरना पड़ता है और इसके लिए जीवन में स्थिरता ,अर्जन, सही ज्ञान और विवेक, सौभाग्य, समृद्धि, नियंत्रण और आध्यात्मिक ऊर्जा का होना बहुत ही आवश्यक

About Manas Rajrishi

प्रतापगढ़ में जन्मे पं॰मानस राजऋषि जी ने 12 वर्ष की आयु से लोगों के जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए ज्योतिष, कर्मकांड, अन्य क्रियाओं के अनेक प्रयोग करने लगे । अंततोगत्वा उन्हे यही समझ मे आया की इनमें से कोई भी विकल्प वास्तव में मनुष्य  को पूर्ण समाधान और संतुष्टि नहीं दे सकते । आज के समय मे सभी प्रयोजन सिर्फ नोट से जेब भरने का ही मार्ग बन गया है । मनुष्य को जब तब पूर्ण समाधान न मिले तबतक तक सारे प्रयोजन मात्र धोखा और छलावा हैं। पं॰मानस राज जी ने 25 वर्ष की आयु तक जब ज्योतिष ,तंत्र,मंत्र एवं विदेशों मे चलने वाले टैरो कार्ड, फेंगसुई आदि में प्रयोग करने पर जब पूर्ण समाधान के लिए विकृति पाई तब आप समाधान के लिए गहन अध्ययन में जुट गए। गुरु के आशीर्वाद और ईश्वरीय कृपा से 9 वर्ष के गहन शोध के बाद आपको सही तकनीक प्रपट हुई । जिसके आधार पर व्यक्ति जीवन मे चल रहे विभिन्न विषयों के प्रति कुछ माह में सही समाधान प्रपट कर सकता है । चाहे विशेष स्वस्थ्य समस्या हो अथवा पारिवारिक कलह, सुख की कमी हो या व्यवसाय में समस्या इन जीवन के प्रत्येक विषयों के प्रति समस्या होना अथवा समाधान मिलना सब भीतर की ऊर्जाओं का खेल  है । पं॰मानस राज जी ने ऊर्जाओं के इस खेल को भली भांति समझा है और ऊर्जाओं को संतुलित कर पूर्ण समाधान दिया है । 
उम्मीद है हर इंसान बाहर के भटकाव और क्रियाओं से मुक्त होकर भीतर को ठीक करने का प्रयास करेगा जिसके लिए Astroyog की यह तकनीक समाधान को सहज करने मे सहायक सिद्ध होगी ।