Thursday, September 13, 2018

वर्तमान योग का विस्तार - कोई अकारण घटना नहीं

र्तमान समय में योग के प्रति लोगों की आस्था जिस प्रकार से बढ़ी है  वह वास्तव में आश्चर्यजनक है । पिछले 50 वर्ष पूर्व बहुत कम लोग योग को जानते थे एवं अभ्यास करते थे ।  वर्तमान में दुनिया का हर  व्यक्ति ग्लोबल नेटवर्क से जुड़ चुका है और योग को जानता है  । प्रकृति में कोई घटना अकारण नहीं घटती है । आपने देखा होगा कि बारिश के समय चीटियों की पीठ पर पंख निकल आते हैं यह घटना प्रकृति की एक विचित्र देन है जो चीटियों को बारिश में सुरक्षित करने के काम आती है  । ठीक इसी तरह प्रकृति हर एक जीव जंतु के लिए ऐसी विशेष परिस्थितियों ,जिस समय किसी विशेष जाति समुदाय का पूरा कुल समाप्त होने की स्थिति में आ जाता है तो प्रकृति कहीं ना कहीं से कोई ऐसा विकल्प तैयार रखती है जिससे अल्पसंख्या में जाति विशेष का अंश सुरक्षित रह कर पीढ़ियों को आगे बढ़ा सकता है । विचार करने वाली बात यह है कि इंसानों के अंदर शक्ति रुप में ऐसा कौन सा विकल्प है जो ऐसी विशेष परिस्थिति के बाद अंश मात्र को सुरक्षित रख सके ।
सामान्य लोगों की समझ में  यह बात शायद ना आए किंतु योगी प्रकृति के लोग जो स्वयं को सिद्ध कर प्रज्ञाचक्षु बन गए हैं उनको भविष्य में आती हुई महाप्रलय की लीला अवश्य दिखाई देती होगी । भोगी प्रकृति के लोगों को कोई चिंता नहीं है । वे तो वर्तमान में ही आनन्द से जीने को परम कर्तव्य मान रहे हैं और वर्तमान के भोग में तल्लीन हो आनंद ले रहे हैं । धीरे-धीरे नज़दीक आती प्रलय की लीला भोगी प्रकृति के लोगों को भला कहां से दिखाई पड़ेगी । मैं नहीं अनेकों भविष्यवक्ता और सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने  नजदीक आती महाप्रलय लीला को स्वीकार किया है । बस सब की भविष्यवाणियों के  बताए गए समय में शायद थोड़ा बहुत अंतर हो किंतु यह अवश्य तय है । यदि अभी की परिस्थिति में हमें यह शुरुआत नहीं दिखाई दे रही हो तब हमसे ज्यादा चिंतनीय और कोई अन्य नहीं है । आज के परिवेश में यदि आप ग्लेशियर के पिघलने की स्थिति को देखेंगे तो पिछले 100 सालों में ग्लेशियर इतना ज्यादा विकृत हो चुका है जितना कि पिछले 10000000 वर्षों में नहीं हुआ । ठीक इसी तरह से  पिछले  100 सालों में अनेक नदियां सिर्फ नाम बनकर के रह गई उनका पानी नदारद हो चुका है ,बची हुई नदियों का जल पूरी तरह से दूषित हो चुका है और वायु में जहरीली गैसों का अनुपात बहुत ज्यादा बढ़ चुका है । पूरी धरती पर जितने भी वृक्ष हैं  उनके ऑक्सीजन उगलने का अनुपात वातावरण में फैले जहर के अनुपात से कम हो चुका है । पिछले 100 सालों में अलग-अलग जगह पर विनाश की लीलाओं ने बहुत सारे संकेत दिए किंतु यह भी सत्य है ना तो अब मनुष्यों को पिछले 500 साल मे वापस भेजा जा सकता है और ना ही करीब आती प्रलय की इस लीला को रोका जा सकता है । अब तो सिर्फ प्रलय की उस लीला से स्वयं को सुरक्षित निकाल सकने के लिए तैयारी की जा सकती है और उस तैयारी के लिए  "लैमार्क" के सिद्धांत के अनुसार जो योग्य होगा वह अवश्य बचेगा ।  प्रकृति के इस चुनाव में  योग्य बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण द्वार है - "योग" ।
योग करने का तात्पर्य शारीरिक रूप से मजबूत ही बनने का नहीं है बल्कि मानसिक और आत्मीय रूप से मजबूत होते हुए अपनी जीवनी  शक्ति को बढ़ाने का मुख्य हेतु भी है । प्रकृति ने बीते तमाम वर्षों में अपनी सामान्य त्रासदियों द्वारा यह संकेत किया है इंसान हवा, जमीन और जल किसी भी प्रकार की त्रासदी को झेलने के लिए तैयार हो जाए और इस की तैयारी हेतु सबसे बड़ा विकल्प है "योग" । पिछले तमाम वर्षों में योग का पुनः पनपना , घर-घर तक पहुंचना यह किसी महापुरुष की देन नहीं । योगी और महापुरुष तो एक माध्यम हैं । यह प्रकृति के द्वारा चयनित  व्यवस्था का स्वरूप है । क्योंकि यही एक विकल्प है जिसके द्वारा इंसान भीतर और बाहर से मजबूत बन सके और महा त्रासदी का सामना कर सके । भविष्यवक्ताओं के अनुसार महात्रासदी के बाद इंसानों का जीवन पृथ्वी पर 90℅ से 95% तक समाप्त हो जाएगा । यह 5% से 10% बचने वाले वही इंसान होंगे जो इस महाप्रलय से बच सकने के लिए योग्य होंगे और उन्हीं इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर पुनः नवजीवन का अवतरण होगा । ऐसे ही इंसानों के द्वारा पृथ्वी पर सतयुग की पुनः वापसी होगी । क्या कभी हमने सोचा है हमारी आने वाली पीढ़ियां भी आने वाले सतयुग के इस सवेरे को अपनी आंखों से देखें । यदि नहीं सोचा है तो वास्तव में सत्य ही है कि आप न स्वयं के प्रति चिंतित हैं और ना ही आने वाली पीढ़ियों के प्रति ।  हमारा तात्पर्य सिर्फ यह नहीं है कि जो व्यक्ति रोजाना योग, प्राणायाम कर रहे हैं वे प्रलय में बच सकने के लिए  सक्षम हैं बल्कि हमारा तात्पर्य योग को पूर्णता से अपने जीवन में उतारने के लिए है। क्योंकि यही एक विकल्प है जो हमारे भीतर की कमजोर चेतना को ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए मजबूत बना सकता है ।  हम में से यकीनन तमाम लोग योग कर रहे हैं किंतु सत्यता यह भी है कि आसन और प्राणायाम के अतिरिक्त बाकि पूरा जीवन भोग ,काम ,लोभ और अहंकार में गुजर जा रहा है , जिसे हम बदलना नहीं चाह रहे हैं और हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी  भोग,लोभ, काम और अहंकार के संस्कार की चादर ओढा रहे हैं और हमें मालूम भी नहीं की प्रकृति अपने चुनाव में ऐसे लोगों को विनाश की लीला में नष्ट होने के लिए चयनित करेगी । यदि हमारे भीतर वास्तव में योग अभ्यास और उससे प्राप्त शक्ति होगी तो निश्चित ही हमारे भीतर भविष्य में आने वाली इस परिस्थिति को समझ सकने की क्षमता होगी । हम तो सिर्फ यही कहेंगे कि वक्त बहुत कम हैं और हमारे दोनो हाथों में एक में भोग की छड़ी है, तो दूसरे में  लोभ की छड़ी और आंखों पर अहंकार का चश्मा है । हमको सिर्फ इन दोनों छड़ियों को और चश्मे को फेंक कर तैयार होना पड़ेगा ,क्योंकि मालूम नहीं महाविनाश की इस लीला में हमको सतयुग के द्वार तक प्रवेश करने के लिए कितने दिन भूखे भटकना पड़ेगा और कितने दिन अव्यवस्थित भटक कर गुजारना पड़ेगा ।  हम तो सिर्फ परम पूज्य गुरुदेव को याद करते हुए उनके इस शब्द को दोहरा रहे हैं -

सावधान हो जाओ 
सावधान हो जाओ नवयुग आता है। 
स्वागत थाल सजाओ नवयुग आता है।। 
होवे कितना ही भारी, पाप अँधेरा। 
भागेगा वह होते ही, पुण्य सबेरा॥ 
होना है दूर, अँधेरा मेरे भाई रे। 
आना है शीघ्र, सबेरा मेरे भाई रे॥ 
सुनो जरा युग दूत, प्रभाती गाता है॥ 
दुष्टता भ्रष्ट स्वार्थ ये, रह न सकेंगे। 
चोट यह महाकाल की, सह न सकेगे। 
होगा न इनका, गुज़ारा मेरे भाई रे। 
देखो तो दैवी, इशारा मेरेे भाई रे॥ 
जो भी हो विपरीत, सभी गल जाता है 
शौर्य सद्भाव बढ़ेगा, सबके मनों में। 
विश्व-बन्धुत्व पलेगा, जन-जीवन में॥ 
आयेगा स्वर्ग, जमीं पर मेरे भाई रे। 
बनना है देव, हमीं को मेरे भाई रे॥ 
दैवी साँचे में ये, सब ढल जाता है॥ 
पाण्डवों जैसा प्रभु से, नेह लगा लो। 
गिद्ध-ग्वालों जैसा ही, शौर्य जगा लो॥ 
जागेगा भाग्य, हमारा मेरे भाई रे। 
आँखों में कल का, नज़ारा मेरे भाई रे॥ 
साहस करने वाला, धन्य कहाता है॥ 

मुक्तक
नया युग आ रहा है, पात्रता विकसित करें अपनी। 
उसी अनुरूप जीवन विधि, चलो निर्मित करें अपनी॥ 
स्नेह, सद्भाव, समता और ममता को सँजोकर हम। 
नये युग को कि स्वागत अञ्जलि अर्पित करें अपनी॥ 

----------------------------------------------------------------------- Article  by - Manas Rajrishi

पढ़ने से पूर्व "मिच्छामी-दुक्कड़म" 🙏🏼💚

हापर्युषण का पावन पर्व । प्रार्थना होगी , आराधना होगी, अपराधबोध होगा और अपराध के प्रति पश्चाताप होगा । फिर एक दिन आएगा जब सब अपने मोबाइल पर एक अच्छा सा मैसेज बनाकर अथवा कोई फोटो जिसमें सुंदर अक्षरों में लिखा होगा "मिच्छामी-दुक्कड़म" की पोस्ट चारो तरफ सेंड करना शुरू हो जाएगा । कोई भी इंसान, कोई भी ग्रुप , कोई भी सोशल मीडिया नहीं छूूटना चाहिए । "मिच्छामी दुक्कड़म" की पोस्ट मूसलाधार बरसात की तरह आती है । फिर उन्हीं चेहरों को साल भर देखता हूं , कोई जनता का खून चूस रहा ,कोई किसी के साथ अन्याय कर रहा , कोई किसी को गलत फंसा रहा, कोई किसी के साथ अत्याचार कर रहा ।

 यह पावन पर्व साधना,आराधना अपराधबोध ,पश्चाताप  फिर समापन  और चारों तरफ "मिच्छामी दुक्कड़म"- "मिच्छामी दुक्कड़म" की बौछार प्रारंभ । हमें नहीं लगता गृहस्थ जीवन में इस तरह की पर्युषण पर्व की पूरी साधना करने वाले सभी लोग वास्तव में मन और भाव से साधना करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे  सिर्फ अपने रीति रिवाजों को पूरा कर पर्युषण के दिन को खत्म कर मिच्छामी दुक्कड़म - मिच्छामी दुक्कड़म करने लगते हैं ।. क्षमा याचना के मामले में बौद्ध धारण के अपराधबोध और क्षमा याचना के ढंग से मैं प्रभावित हूं । यदि जाने और अनजाने में किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति के साथ अन्याय किया है तो वह स्पष्ट रुप से पीड़ित को यह कह कर क्षमा याचना करता है ,मैंने आपके साथ इस प्रकार का अन्याय किया है और आप को इस रुप में पीड़ा पहुंचाई इसलिए उसके प्रति मैं आपसे क्षमा याचना करता हूं । किंतु "मिच्छामी दुक्कड़म" शब्दों के साथ में कुछ अपूर्णतायें हैं ।
वे अपूर्णता है यदि पूरी हो जाए तो "मिच्छामी दुक्कड़म" सही अर्थों में बहुत शक्तिशाली रूप में समाज को अपराध ना करने के लिए प्रेरित करेगा । इस पर्व में अपराधबोध का भली प्रकार से चिंतन कर लेना चाहिए। स्वयं के द्वारा किसके प्रति अपराध हुआ । "मिच्छामी दुक्कड़म" के शब्दों को व्यक्त करने के लिए सबसे पहले उन व्यक्तियों को खोजना चाहिए जिनके प्रति आपने जानबूझकर अपराध किया । जिसके प्रति अपराध हुआ । अपराध की स्पष्टता करते हुए क्षमा याचना करनी चाहिए ।.  "मिच्छामि दुक्कड़म" को तभी पूर्ण कह सकते हैं जब तक अपराध करने वाले की आंखों में वास्तविक  पीड़ा  दिखाई दे और स्वयं के अपराध के प्रति क्षमा याचना के साथ पीड़ित व्यक्ति संतुष्ट  हो जाए । तब तक "मिच्छामि दुक्कड़म"  ठीक उसी प्रकार अधूरा है जैसे धर्मों के अन्य रीति रिवाजों का पालन हम भली-भांति तो करते हैं किंतु भाव विहीन हो कर । "मिच्छामि दुक्कड़म" का यह प्रयोजन   आज के समय मेें दिखावे की वस्तु भर बनकर रह गया है । न तो अन्य धार्मिक रीति-रिवाज समाज की दिखावे की वस्तु है और ना ही "मिच्छामी- दुक्कड़म" कोई दिखावे की वस्तु है । इन सभी का तात्पर्य और उद्देश्य सिर्फ एक ही है स्वयं के अंदर पवित्रता का उदय हो जाए , मृत्यु के बाद की गति अतिउत्तम हो जाए अन्यथा रीति-रिवाज और "मिच्छामि दुक्कड़म" में समय व्यर्थ होकर उसी तरह से निकल जाएगा जैसे कई जन्मों की यात्राओं में समय निकल जा रहा । भले ही शास्त्रों में विशेष बातें लिखी हूं किंतु सत्य यही है आपका जन्म किसी भी धर्म में हुआ है जब तक आप अंतःकरण को पवित्र नहीं करेंगे तब तक अनंत जन्मों की यात्रा समाप्त होने वाली नहीं - "मिच्छामी दुक्कड़म"
--------------------------------------------------------------------------------Artical by - Manas Rajrishi  

Thursday, September 6, 2018

समृद्ध होने की सही दिशा

यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तब हम आपको धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंडों, बहुत अधिक पूजा पाठ, कर्म क्रिया कांड, तंत्र मंत्र अथवा धार्मिक आश्रमों में जाकर साधनाओं में समय गवाने की बात बिल्कुल नहीं करेंगे, क्योकि इनसे आप बिलकुल समृद्ध नहीं होने वाले।   हम सिर्फ गीता में लिखी वह महत्वपूर्ण बात कहेंगे जिसके ऊपर श्रीकृष्ण ने बार-बार इंगित किया और वह बात है सही तरीके से स्वयं के कर्म में संलग्न हो जाना।  जब तक हम सही तरीके से कर्म में संलग्न नहीं होते हैं तब तक अधिक पैसे का लोभ  और काल्पनिक सफलता की लालसा के कारण कई जगह हाथ पाव आजमाते रहते हैं और हर बार निष्कर्ष विचार स्वरुप में यही आता है कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं है।  हमें कुछ अन्य के लिए प्रयत्न करना चाहिए और यह प्रयास बार-बार करते हुए एक दिन वह उम्र निकल जाती है कि आप पिछली उसी शक्ति के साथ बार-बार प्रयास कर सकें ! तब तो सिर्फ पेट भरने के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति के कारण प्रयास होता है यदि आप गृहस्थ जीवन में हैं तो आप का कर्म  है -पुरुषार्थ साधना करिए और  समृद्ध  बनिए।

           

हम समृद्ध होने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं किंतु यह सारा प्रयत्न हमारे स्वयं से बाहर की तरफ होता है और जितने लोग यह सारा प्रयत्न बाहर की तरफ कर रहे हैं, हमारे सर्वेक्षण के अनुसार कोई भी समृद्धि नहीं मिले.  समृद्धि का अर्थ स्वास्थ्य के प्रति संबंधों के प्रति, संपत्ति के प्रति, परिवार के प्रति, व्यवसाय के प्रति संतुष्टि की भावना और हमेशा सकारात्मक विचार, प्रेम,  दया भाव और सदैव  आनंदित,रचनात्मक प्रवृत्ति। समृद्ध व्यक्तियों के चेहरे पर सदैव यह समृद्धि साफ-साफ झलकती है। 

असमंजस का विषय है योग साधक बंधु यह समझते हैं कि महर्षि पतंजलि ने चित्त को एक जगह पर स्थिर करने का हेतु  सिर्फ योगी बनने के लिए अथवा समाधि या मोक्ष  प्राप्त करने के लिए कहा है किंतु ध्यान रखिए आप गृहस्थ जीवन में हैं  इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात आपके समृद्ध होने के लिए है।   जब तक आप समृद्ध नहीं होंगे तब तक पूर्णत: संतुष्ट नहीं होंगे और जब तक संतुष्ट नहीं होंगे तब तक समाधि या मोक्ष पाना असंभव है।  इस समृद्धि को प्राप्त करने के लिए कि आपको सबसे पहले स्वयं को स्थिर करने का प्रयास करना होगा।  स्थिरता से  मूलाधार चक्र सही गति में चलने लगता है और उससे प्रदीप्त होने वाली ऊर्जा ऊपर  चढ़ने लगती है।   मूलाधार चक्र से प्रदीप्त ऊर्जा  स्वाधिष्ठान को प्रभावित  और संतुलित  करती है।  स्वाधिष्ठान के संतुलित  होने से आपके पास आप को समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ाने हेतु आवश्यक संसाधन उपलब्ध होने शुरू हो जाते हैं।  मूलाधार की ऊर्जा  सुसुम्ना के रास्ते  मणिपुर चक्र तक पहुंच कर मणिपुर को संतुलित करने लगती है  तब हमारे भीतर उपलब्ध संसाधनों के सही विवेक का ज्ञान होने लगता है , स्वभाव में सौम्यता  आ जाती है।  
जब यह ऊर्जा सुसुम्ना के रास्ते अनाहत में पहुंचती है तब  स्वयं के कर्म के प्रति अपार लगाव हो जाता है।  जिसके कारण व्यक्ति स्वयं के कर्म को तत्परता से करने लगते हैं। और जब यही ऊर्जा विशुद्धि तक पहुंच कर विशुद्धि को संतुलित करती है तब हमारे कर्म का विस्तार होना प्रारंभ हो जाता और हमारे कर्म का विस्तार हमारी समृद्धि की दिशा में पहला कदम होता है। उपलब्धियों के साथ यदि हमारे कर्म और संगठन पर हमारा नेतृत्व और पूर्ण नियंत्रण स्थापित ना  हो तब भी हम इसको समृद्धि नहीं  कह सकते हैं।  आज्ञा चक्र तक उर्जा का पहुंचना और संतुलित होना ,हमें नियंत्रण करने की पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करता है और राजयोग की तरफ भी स्वयं की दिशा को प्रशस्त करता है। 
किंतु इन सब प्रयत्नो के द्वारा समृद्धि प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले चिंतन, मनन और ध्यान में जाना होगा और पाखंडों का त्याग करना होगा।  जिससे एक ही रास्ते पर चलना आसान हो सके।   

Tuesday, September 4, 2018

मूलाधार चक्र परीक्षण, प्रभाव

मूलाधार चक्र -

मजबूत आधार के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं . जीवन में 90% से अधिक समस्याएं जीवन के संघर्ष और भटकाव के कारण होती है . यह कार्य मुख्य रूप से मूलाधार चक्र के असंतुलन के कारण होता है . जैसा कि अनेक ग्रंथों में वर्णन है -चार पंखुड़ियों वाला लाल कमलवत  स्वरूप ,रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में स्थित होता है . इसकी ऊर्जा का  मुख्य स्थान गुदाद्वार और जननेंद्रिय के बीच होता है .जीवन के मुख्य गुणों में यह जीवन की स्थिरता का नियंत्रण करता है . टेस्टिकल और एड्रिनल ग्रंथियों का क्षेत्र ज्ञानेंद्रिय नासिका . चक्र की कर्मेंद्रिय गुदा, मुत्रपिंड, मेरुदंड एवम विसर्जन पर नियंत्रण करने का कार्य . इसके संतुलन से शरीर में मस्सा ,कैंसर, घुटनों की समस्या और फोबिया जैसे समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है योग ध्यान द्वारा मनपूर्वक साधना से जागृत और संतुलित किया जा सकता .


चक्र का परीक्षण, प्रभाव - 
और इन अवस्थाओं के अतिरिक्त हर चक्रों की दीप्त आदि 9 अवस्थाएं होती हैं व्यक्ति के गुणों के आधार पर और व्यक्ति के जीवन में चल रही स्थितियों के आधार पर हम चक्रों की अवस्थाओं को समझते हैं . किंतु इसके अतिरिक्त भी वैदिक विधि द्वारा  जन्म समय के चक्रों की अवस्था को अवश्य जान लेना चाहिए इससे उसके जीवन के संस्कार में चक्रों की क्या स्थिति है इसका ज्ञात हो जाने से चक्रों का संतुलन करना आसान हो जाता है ।

हम स्वयं के प्रति अथवा  किसी अन्य व्यक्ति के प्रति , नीचे लिखे गुणों के अनुसार से जान सकते हैं कि मूलाधार चक्र कितना जागृत और दीप्त अवस्था में  है । प्रारंभ में सबसे जाग्रत स्वरूप को रखते हुए नीचे अगले अन्य क्रमों में चक्रों का बल घटते क्रम में निम्नलिखित है -
  1. यदि व्यक्ति अपने जीवन में पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और उसका  चारों तरफ यश प्रदीप्त हो रहा है तो या "जागृत दीप्त" अवस्था  कहलाती है ।
  2. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्य कर रहा हो और पूरी तरह से स्वस्थ हो . गम्भीर हो और सामजिक कर्यो में प्रवृत्त  यह" जागृत स्वस्थ"  अवस्था कहलाती है. 
  3. यदि व्यक्ति पूर्ण स्थिरता के साथ कार्यों को कर रहा हो और स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण संतुष्ट हो तो यह "जागृत मुदित" अवस्था कहलाती है । 
  4. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्यों के प्रति पूर्ण स्थिर हो और संतुष्टि और असंतुष्टि के प्रश्न पर वह शांत हो तो या "जागृत शांत" अवस्था कहलाती है । 
  5. यदि व्यक्ति स्थिरता के साथ कार्य करने की सामर्थ्य रखता हो किंतु अभी विशेष कार्य का अवसर हाथ न लग पाने के कारण प्रतीक्षारत हो तो यह "जागृत शक्त" अवस्था कहलाती है । 
  6. यदि व्यक्ति स्वयं के कार्य पूर्ण स्थिर हो फिर भी वह किसी असफलता को लेकर हल्का परेशान हो तो यह जाग्रत  निपीड़ित अवस्था कहलाती है ।
  7. व्यक्ति अपने कार्यो में पूरा  स्थिर हो किंतु भयभीत हो तो यह "जागृत भीत"  अवस्था कहलाती है । 
  8. व्यक्ति स्वयं के कार्यों में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसकी स्थिरता का नियंत्रण किसी अन्य व्यक्ति या ऊर्जा के हाथ में होने के कारण वह विचलित हो इसे "जागृत विकल" अवस्था कहते हैं ।
  9. पहले व्यक्ति स्वयं के कार्य में पूर्ण स्थिर हो किंतु उसके कार्य की दिशा गलत कार्यों में हो तो इसे 'जागृत खल' अवस्था कहते हैं । 
  10. व्यक्ति के मध्यम स्थिर होने के साथ यशस्वी होने पर "अर्ध जागृत दीप्त", स्वस्थ होने पर "अर्ध जागृत स्वस्थ",  संतुष्ट होने पर "अर्ध जागृत मुदित " एवं संतुष्टि-असंतुष्टि के प्रश्न पर शांत  होने पर "अर्ध जागृत शांत",  स्थिरता की मध्यम सामर्थ्य के साथ कार्य के प्रति प्रयास करना चाहता हो तो अर्ध जागृत शक्त , असफल हो जाने के कारण स्थिरता से मन भटक रहा हो तो "अर्धजागृत निपीड़ित",  स्थिर हो किंतु भयभीत होने के कारण स्थिरता डगमगा रही हो तो "अर्धजागृत भीत",  मध्यम स्थिरता के साथ किसी अन्य के नियंत्रण में कार्य हो तब "अर्ध जाग्रत विकल"   एवं मध्यम स्थिर होने के साथ गलत कार्यों का स्वभाव रखता हो तो "अर्धजागृत खल" अवस्था कहलाती है ।
  11. किसी व्यक्ति के अंदर स्थिरता बिल्कुल ना हो किंतु यदि वह यशस्वी हो चक्र की "सुप्त दीप्त" अवस्था कहलाती है । यदि अस्थिर व्यक्ति पूर्णता: स्वस्थ हो तो यह "सुप्त स्वस्थ" अवस्था है ।अस्थिर व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ ना हो किंतु संतुष्ट हो ऐसी अवस्था "सुप्त मुदित" कहलाती है । यदि व्यक्ति स्थिरता के प्रश्न पर शांत  हो ऐसी अवस्था "सुप्त  शांत" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति स्वयं की स्थिरता के प्रति चिंतित हो तो ऐसी अवस्था "सुप्त शक्त"  कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति असफलता के कारण दुखी हो ऐसी अवस्था में "सुप्त निपीड़ित" कहलाती है । अस्थिर व्यक्ति भयभीत हो यह अवस्था "सुप्त भीत" और अस्थिर व्यक्ति के अवसाद में होने से "सुप्त विकल"  एवं व्यक्ति के दुष्ट कार्यों में प्रवृत्त होने से "सुप्त खल" कहलाती है ।
यहां उपरोक्त गुणों के अनुसार परीक्षण के बाद निष्कर्ष निकालते हैं की मूलाधार चक्र कितना सक्रिय है और उसे पूर्ण सक्रिय बनाने के लिए कितना कार्य करना अभी शेष है । जितना कार्य करना शेष होता है उसी के अनुसार योग,ध्यान, आहार के साथ अन्य विधियों से उसे एक निश्चित अवधि में नियमित अभ्यास   द्वारा  चक्र को संतुलित किया जा सकता है । 
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                                                                                                             लेख - मानस राजऋषि
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