Tuesday, October 30, 2018

सावधान हो जाओ कि, नवयुग आता है

पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने दिव्य  संदेशों के साथ एक विशेष संदेश भी दिया ,वह है नवयुग आगमन हेतु तैयारी । गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल  भविष्य की भविष्यवाणी की और इसी हेतु से उन्होंने समाज सुधार के द्वारा लोगों को पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा दी । इसी बीसवीं सदी में अनेकों महापुरुष अवतरित हो गए जिसमें कुछ ने जाति-पाति भेदभाव के बंधन से पृथक होकर मानव मात्र की ही नहीं अपितु इस पूरी धरा की सेवा की जिनमें से पूज्य गुरुदेव एक थे । दूसरी तरफ अनेक मतावलंबी भी उत्पन्न हुए, जिन्होने स्वयं को लोगों से पृथक कर पंथ बना लिए जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं को ज्यादा से ज्यादा शक्ति सम्पन्न व सुरक्षित करनेहेतु सुविधा- संग्रहण करते चले गए । इस सुविधा संग्रहण के अधिक प्रयास के कारण यह धरती इन धर्माओंलंबियों प्रायास में खोखली होती चली गयी ।


गुरुदेव के अनुसार सतयुग की वापसी 21वीं सदी में हो जाएगी । परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है सतयुग की वापसी के लिए क्या प्रक्रियाएँ  और घटनाएं होंगी जिससे कलयुग का अंत हो जाएगा ।

विज्ञान की दृष्टि से ही देखें तो लोगों को ज्यादा विश्वास दिला सकने में आसानी होगी ।  विज्ञान की दृष्टि के अनुसार विश्वव्यापी आपदाओं को नहीं भुलाया जा सकता, ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते घनत्व के कारण कोई भी खाद्य पदार्थ शुद्ध नहीं रह गया, भौतिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले विकिरणों  के कारण मानव समाज में फैलता हुआ रोग अनदेखा नहीं किया जा सकता । तेजी से ग्लेशियर के स्तर का घटना, समुद्र के स्तर का बढ़ना और अनेकों आपदाओं का आना इस बात का उदाहरण है की कलयुग की समाप्ति की शुरुआत प्रारंभ हो चुकी है ।


यह परिस्थिति धीरे धीरे बढ़ती जाएगी क्योंकि इसकी रोकथाम को कर पाने के लिए पृथ्वी के सभी मानव द्वारा अनेकों प्रयास के बावजूद हमने प्रदूषण , विकिरण, पेड़ों के कटाव और बीमारियों की रोकथाम को पूर्णहन रोक सकने में नाकामयाब रहे ।


क्या असर होगा इन सबका -
                 इन सबका परिणाम बहुत जल्दी ही बहुत भयावह रूप लेने वाला है जो तमाम बुद्धिजीवियों को भी नहीं दिखाई पड़ रहा है । खास करके हम बात उनकी करेंगे जो ऐशों-आराम की जिंदगी में मस्त हैं । उनके लिए अच्छा संदेश नहीं दिख रहा । कहीं पर कोई महामारी, बीमारी अथवा प्राकृतिक आपदा तबाही का रूप लेगी , जिसमें  बच सपने में वही सक्षम होंगे जिन्होंने ऐशों-आराम की जिंदगी से दूर रह पुरुषार्थ किए । जिन्होने सुविधा-संग्रह-भोग के जीवन को गुजारा है उनके अंदर शारीरिक और मानसिक क्षमता अपूर्णहोने के कारण ऐसे लोगों का स्वयं को और स्वयं की पीढ़ी को सतयुग के द्वार तक पहुंचा सकने में असफलता होगी ।



कैसे तैयार करें सतयुग के लिए स्वयं को -
                                   सतयुग के द्वार तक पहुंचने का अर्थ है पृथ्वी के नवजीवन में प्रवेश । जहाँ आपकी पीढ़ी भी गतिशील रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही ।  किंतु सतयुग के द्वार तक पहुंचना सभी के लिए साधारण नहीं । इसके द्वार तक पहुंचने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अपूर्व  क्षमता चाहिए ,इसके साथ भावनात्मक बल चाहिए । हालांकि, यह कार्य प्रकृति का है इसलिए पूरी तरह से न्याय पूर्वक होगा । जो लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ शारीरिक रूप से सक्षम नहीं हो पाएंगे वे  वहाँ तक नही पहुंच पाएंगे । विकृत लोग , भेदवादी, कुरीतिवादी, महत्वाकांक्षी , भोगी, लोभी लोग स्वयं प्रकृति द्वारा छट कर समाप्त हो जाएँगे । भावनात्मक रूप से समृद्ध दयावान, सेवाभावी निर्गुण, और पुरुषार्थी लोग रह जाएंगे ।

कैसे होगा  सतयुग -  तमाम प्राकृतिक आपदाओं के बाद धीरे-धीरे धरा शांत होगी ।  आज के युग की भौतिक संपदाएँ पूरी तरह से समाप्त हो चुकी होंगी । मानव मात्र मे कल्याण के  हेतु से सभी का प्राकृतिक जीवन के प्रति संकल्प होगा । एक नए युग का प्रारंभ हो जाएगा , जिसमें मनुष्य का जीवन पूर्ण  प्राकृतिक होगा, कोई मशीनीकरण नहीं होगा, कोई बाजारीकरण नहीं होगा, रात में चांद और तारों की ही रोशनी प्रकाशित होगी । कोई पंथ  नहीं होगा कोई जाति नहीं होगी। कोई अनीति नहीं होगी, कोई कुरीति नहीं होगी । कोई बंदर नहीं होगा-कोई मदारी नहीं होगा, कोई राजा नहीं होगा ,कोई भिखारी नहीं होगा , । क्योंकि सतयुग में प्रकृति ने ऐसे लोगों का चुनाव किया ही नहीं जिसमें उसको पुनः स्वयं की त्रासदी आ सामना करना पड़े ।

हमें क्या करना होगा - ऐसा नहीं है कि हमारे अंदर कोई कमी है तो हम सतयुग में पहुंचने के योग्य नहीं ।  कमियां सबके भीतर होती हैं हमें स्वयं की कमियों को स्वयं से पृथक करके अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को अभी से समृद्ध करना होगा ।
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पूज्य गुरुदेव की तरफ से दिव्य संदेश यही है कि स्वयं में जागें, ,शुद्धीक्रिया से निवृत्त हों और सतयुग में प्रवेश हेतु पुरुषार्थ में निहित हो जाएँ ।
_____________लेख - मानसराज ऋषि

Tuesday, October 16, 2018

सिर्फ चक्र जागरण ही पर्याप्त नहीं गति भी महत्वपूर्ण


नमस्कार मित्रों .
जैसा कि सभी जानते हैं आज का परिवेश आधुनिक युग कहलाता है और यह युग  पिछले 500 वर्ष पहले के युग से बिल्कुल भिन्न हो चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग मनुष्य के जीवन का पूर्ण पर्याय बन  चुका है । सुविधा, संग्रह, भोग की आवश्यकता आजकल गृहस्थों को ही नहीं बल्कि सन्यासियों और साधुओं को भी हो गई है । इस सुविधा, संग्रह ,भोग में लिप्त इंसान जब शारीरिक रूप से स्वयं को सक्षम नहीं महसूस करता तब वह स्वयं को सुविधा,संग्रह भोग के लिए सक्षम करने हेतु योगआसान और प्राणायाम  करता है । योगासनों और प्राणायाम का अभ्यास करते-करते उसे ज्ञान होता है कि इससे भी ऊपर की बात है - सात चक्रों का जाग्रत होना है । सुविधा, संग्रह, भोग को एक तरफ इंसान छोड़ना नहीं चाहता दूसरी तरफ सात चक्रों को जागृत करना चाहता है । इतिहास के पन्नों में मानव जाति के पतन के लिए कार्य करने वाले मोहम्मद गोरी, गजनी, हिटलर, लादेन जैसे अनेकों शक्ति संपन्न इंसानों का जिक्र आता है । वहीं दूसरी तरफ मानव जाति के उत्थान के लिए कार्य करने वाले कृष्ण ,सम्राट अशोक, संत कबीर, बुद्ध ,स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का जिक्र भी आता है । हम यह बिल्कुल नहीं कह सकते कि पतन के रास्ते पर कार्य करने वाले यह महामानवों के चक्र जागृत नहीं थे । इन सभी की सक्रियता और सक्षमता के अनुसार इनके सातों चक्र जागृत कहे जा सकते हैं किंतु चक्र जागरण ही मुख्य बात नहीं है । मुख्य बात है चक्रों की सकारात्मक गति और नकारात्मक गति । पतन के रास्तों पर कार्य करने वाले सभी महामानवों के चक्रों की गति नकारात्मक रूप से अधिक गति में गतिशील थी और उत्थान के मार्ग पर कार्य करने वाले महापुरुषों के चक्रों की गति ,तीव्र गति में सकारात्मक । इसीलिए उनके भीतर की प्रेरणा और कार्य भी सकारात्मकता और नकारात्मकता की दृष्टि से परिवर्तित हो गए । हमारा इस परिदृश्य में बात रखने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि हम यदि चक्रों के जागरण पर कार्य कर रहे हैं तो आवश्यक हैं कि उसके साथ सात चक्रों की गति को सकारात्मक मूवमेंट देने के लिए भी कार्य करें । अन्यथा स्वयं के सुविधा,संग्रह,भोग , गलत आदतों और बुराइयों के कारण चक्र जागृत होने के बावजूद भी नकारात्मक गति में गतिशील रहेगा जिसके कारण हम चक्र जागृत करने के बाद भी समाज के लिए कोई योगदान नहीं दे पाएंगे और स्वयं की स्वार्थनिहिता के कारण चक्रों को जागृत करने के बावजूद भी पूरा जीवन निरर्थक कार्यों बिता देंगे ।

उदाहरण के स्वरूप में हमने मूलाधार चक्र को लिया जिसकी मुख्य चार उर्जाएँ - धर्म, अर्थ, काम और  मोक्ष के संतुलन के लिए कार्य करती हैं । किसी व्यक्ति का मूलाधार चक्र जागृत है और जागृत होने के साथ अधिक सकारात्मक भी है तब वह धर्म,अर्थ ,काम ,मोक्ष के विषय अंतर्गत सकारात्मक रीति से कार्य करेगा अन्यथा जागृत मूलाधार चक्र की ऊर्जाओं को वह धर्म,अर्थ, काम में लिप्त होकर व्यर्थ गँवाएगा ।

चक्रों के जागरण के साथ उसकी स्कारात्मक गति किसी अभ्यास से नहीं प्राप्त होती । यह  भीतर के संयम संकल्प द्वारा आत्माशक्ति वृद्धि से ही प्राप्त हो सकती है इसलिए चक्रों के जागरण में के साथ पंचकोशीय  यात्रा की साधना भी अनिवार्य रूप से करना चाहिए । अन्यथा सात चक्र जागृत होने के बावजूद भी व्यक्ति के चेतना अन्नमय कोश तक ही अटकी रहेगी ।  जिससे ना तो स्वयं का उत्थान संभव है और ना ही समाज कल्याण । आजकल योग साधक जब समाज कल्याण करता है तब उसके समाज कल्याण में उसके भीतर दिखाई देने वाली  महत्वाकांक्षा उसके चक्रों के जाग्रत होने के साथ नकारात्मक गति का महत्वपूर्ण उदाहरण है । ऐसे में योग साधना बाजार की वस्तु और दिखावे की वस्तु बन कर रह जाती है ।
उचित है कि हम सात चक्रों को जागृत करें किंतु आवश्यक है उसके साथ चक्रों की गति को सकारात्मक भी करें जिसके लिए सही मार्गदर्शन की खोज करें , इस बात को ध्यान रखते हुए की चक्र जागरण कोई बाजार में बिकने वाली बाजार वस्तु नहीं है । _______________________लेख - मानस राजऋषि